जब अपराधी जुर्म कबूल नहीं करता है तो पुलिस नार्को टेस्ट करवाती है। इसमें जांच अधिकारी, चिकित्सक, मनोचिकित्सक की टीम शामिल होती है। यह टेस्ट भारत के सभी राज्यों में नहीं होता है। दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद इत्यादि बड़े शहर में यह कराया जाता है। इसके लिए स्पेशल लैब होती है। जहां पर अपराधी को रख सच उगलवाया जाता है। इस संबंध में झारखंड पुलिस के पूर्व डीएसपी राकेश मोहन सिन्हा व जमशेदपुर निवासी से हमने बात की, वहीं नार्को टेस्ट क्या है, कैसे किया जाता है सहित अन्य बिंदुओं पर बात की, ताकि सामान्य व्यक्ति इस जांच के बारे में जान सके। तो आइए इस आर्टिकल में हम नार्को टेस्ट सहित इससे जुड़ी अन्य बातों को जानते हैं। एक बात और वैसे तो आपने टीवी सीरियल्स और फिल्मों में नार्को टेस्ट को होते कई बार देखा होगा, लेकिन हकीकत में यह कैसे होता है जानने के लिए पढ़ें यह खास रिपोर्ट।
क्या होता है नार्को टेस्ट
एक्सपर्ट बताते हैं कि नार्को टेस्ट एक प्रकार का जांच है, जिसमें मेडिकल प्रोफेशनल व प्रशासनिक अधिकारियों की टीम मिलकर अपराधी व आरोपी से सच उगलवाते हैं। इसके लिए एक्सपर्ट पहले से ही सवाल तैयार कर लेते हैं, जो टेस्ट के दौरान अपराधी व आरोपी से पूछा जाता है। अपराधी द्वारा बताए सबूतों के अनुसार आगे की रणनीति तय कर जांच की जाती है। वहीं सच्चाई साबित करने के लिए पुलिस सबूत की तलाश करती है।
जिस व्यक्ति का नार्को टेस्ट होगा पहले उसकी इजाजत भी जरूरी
एक्सपर्ट ने बताया कि जिस व्यक्ति का नार्को टेस्ट करना पड़ता है उससे भी परमिशन लेना पड़ता है। बिना उस आदमी के इजाजत के पुलिस किसी का नार्को टेस्ट नहीं कर सकती है। इसके साथ ही कोर्ट की भी इजाजत लेना अनिवार्य है। नार्को टेस्ट करना काफी जटिल प्रक्रिया है। इसलिए यह हाई प्रोफाइल केस में ही ज्यादा यूज किया जाता है। इस टेस्ट की वीडियो ग्राफी होती है। नार्को टेस्ट के जरिए जो सच पुलिस उगलवाती है वो कोर्ट में पेश कर आरोपी को सजा नहीं दिला सकते हैं, बल्कि इसके बाद पुलिस अपराधी द्वारा बताए गए सबूतों के अनुसार अन्य सबूत व तथ्यों की तलाश करती है। पुलिस को सबूत तलाशने ही होंगे, नार्को टेस्ट बस सपोर्टिव एविडेंस होता है। इससे पुलिस घटना का मुख्य सबूत तलाश सकती है, लेकिन उसे कोर्ट में साबित करने के लिए अन्य सबूतों को तलाशना होता है। नार्को टेस्ट की सफलता इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे सवाल अपराधी से पूछे जा रहे हैं।
इस टेस्ट में साइकोएक्टिव ड्रग्स का होता है इस्तेमाल
एक्सपर्ट बताते हैं कि टेस्ट के लिए पहले अपराधी को खास दवाइयां (ड्रग्स) दी जाती हैं, जिससे वो सच बोले। इस टेस्ट में अपराधी को ट्रुथ ड्रग (ट्रूथ सिरम) नाम की एक साइकोएक्टिव दवा दी जाती है या फिर सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन लगाया जाता है। इस ड्रग्स को ज्यादा देने से व्यक्ति की मौत भी हो सकती है। वजह है कि एक्सपर्ट पैनल जिनमें डॉक्टर शामिल होते हैं वो मरीज की शारिरिक जांच, उम्र, कोई बीमारी है या नहीं सहित तमाम बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए डोज की मात्रा तय करते हैं। इस दवा को खाने अपराधी न तो पूरी तरह होश में रहता है और न ही बेहोश होता है। इस दवा को खाने के बाद वो झूठ नहीं बोलता है, क्योंकि दवा के शरीर में जाने से दिमाग काम करना बंद हो जाता है। जबकि झूठ बोलने के लिए ज्यादा दिमाग का यूज किया जाता है। सच बोलने के लिए कम दिमाग खर्च होता है। क्योंकि जो सच होता है वो आसानी से बिना ज्यादा दिमाग पर जोर दिए बाहर आता है लेकिन झूठ बोलने के लिए दिमाग का काफी इस्तेमाल होता है, काफी सोचना होता है, बातें घुमा फिराकर बोलनी होती है। इस टेस्ट में व्यक्ति से सच ही नहीं उगलवाया जाता बल्कि उसके शरीर की प्रतिक्रिया भी देखी जाती है। टेस्ट में व्यक्ति ज्यादा बोल नहीं पाता है। व्यक्ति के दिमाग की तार्किक रूप से या घुमा फिराकर सोचने की क्षमता खत्म हो जाती है इसलिए इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि इस अवस्था में व्यक्ति जो भी बोलेगा सच बोलेगा। इस टेस्ट में ऐसा नहीं होता कि हर बार सच का पता चल जाए। कभी-कभी जिसे दवा दी जाती है, वो बेहोश हो जाता है, जिससे सच का पता नहीं चल पाता है।
कई केस में न चाहते हुए भी सच बोल देता है
एक्सपर्ट बताते हैं कि कई बार सिर्फ यह पता करना होता है कि वो उस घटना से जुड़ा हुआ है या नहीं। इसके लिए व्यक्ति को कम्प्यूटर के सामने बैठाया जाता है या सुलाया जाता है। कम्प्यूटर में घटना के संबंध में फोटो और वीडिओ दिखाए जाते हैं। बेहोशी में अपराधी न चाहते हुए भी सच बोल देता है। इसके अलावा बॉडी की प्रतिक्रिया भी नोट की जाती है।
फूल-पत्ते और पहाड़ की तस्वीर दिखाई जाती है
सबसे पहले व्यक्ति को पहाड़, फूल, पत्ते, बिल्डिंग इत्यादि की तस्वीरें और वीडियो दिखाई जाती है, जो घटना से जुड़ी नहीं है। इसके बाद उसे घटना से जुड़ी तस्वीर वीडियो दिखाई जाती है। इसके बाद बॉडी का रिएक्शन और दिमाग की अवस्था को देखा जाता है, जिसके आधार पर घटना की सच्चाई पता की जाती है।
इन लोगों का नार्को टेस्ट नहीं होता
एक्सपर्ट बताते हैं कि सभी लोगों का नार्को टेस्ट नहीं होता है, इसके लिए भी अपराधी की चयन प्रक्रिया है। यह टेस्ट काफी खर्चीला होता है, इसमें सरकार के काफी पैसे खर्च होने के साथ प्रोफेशनल्स की टीम की जरूरत होती है। बता दें कि नार्को टेस्ट करने से पहले अपराधी की बॉडी की जांच की जाती है। चेक किया जाता है कि व्यक्ति की मेडिकल कंडीशन नार्को टेस्ट के लायक है या नहीं। अगर अपराधी बीमार है या उसकी उम्र ज्यादा है या वो शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर है तो उसे नार्को टेस्ट के लिए अनफिट माना जाता है। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि नार्को टेस्ट के लिए दी जाने वाली साइकोएक्टिव दवा व सोडियम पेंटोथॉल का इंजेक्शन काफी ज्यादा पावर वाला होता है, इसका खतरनाक असर हो सकता है और व्यक्ति की मौत भी हो सकती है। इसलिए इन तमाम बिंदुओं की जांच के बाद भी प्रोफेशनल्स की टीम नार्को टेस्ट करने के लिए आगे बढ़ती है।
सुरक्षा व जांच एजेंसी के साथ सिर्फ प्रोफेशनल ही करा सकते हैं टेस्ट
ऊपर बताए गए तथ्यों से यह तो साफ हो ही गया होगा कि यह कोई शुगर, हार्ट का चेकअप नहीं बल्कि अपराधी के मन में छिपी बात को निकालने के लिए टेस्ट किया जाता है। वहीं ऐसे टेस्ट सिर्फ सुरक्षा व जांच एजेंसी चाहे तो करवा सकती है। कोई सामान्य डॉक्टर चाहकर भी यह जांच न तो कर सक
सुरक्षा व जांच एजेंसी के साथ सिर्फ प्रोफेशनल ही करा सकते हैं टेस्ट
ऊपर बताए गए तथ्यों से यह तो साफ हो ही गया होगा कि यह कोई शुगर, हार्ट का चेकअप नहीं बल्कि अपराधी के मन में छिपी बात को निकालने के लिए टेस्ट किया जाता है। वहीं ऐसे टेस्ट सिर्फ सुरक्षा व जांच एजेंसी चाहे तो करवा सकती है। कोई सामान्य डॉक्टर चाहकर भी यह जांच न तो कर सकता है ना करवा सकता है। क्योंकि इस जांच को करवाने के लिए कोर्ट, पुलिस, जिसपर जांच की जा रही है उसकी इजाजत अनिवार्य है।
ता है ना करवा सकता है। क्योंकि इस जांच को करवाने के लिए कोर्ट, पुलिस, जिसपर जांच की जा रही है उसकी इजाजत अनिवार्य है।