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राजनीति

दबाव में वोट बैंक की राजनीति, हर कोई अपने लिए सही समी‍करण बिठाने की फिराक में

सुरेंद्र किशोर। शासन और विकास की राजनीति अपनी जड़ें जमाने लगी हैं। इसके सकारात्मक संकेत भी मिलने लगे हैं। इसके कारण सामाजिक समीकरण और वोट बैंक की राजनीति अब दबाव की मुद्रा में है। वह झुंझलाकर हमले भी कर रही है। उत्तर प्रदेश की बात करें तो ‘वोट बैंक’ की छीना-झपटी के प्रयास के तहत कुछ नेता जिन्ना को याद कर रहे हैं तो कुछ अन्य हिंदुत्‍व पर अपमानजनक टिप्पणियां कर रहे हैं, ताकि अल्पसंख्यक वोट उनकी ओर मुखातिब हों। इस बीच एक ताजा चुनाव पूर्व सर्वेक्षण के अनुसार 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बार फिर भाजपा के नेतृत्व वाले राजग को बढ़त मिलती दिख रही है। हालांकि बहुमत पहले की अपेक्षा थोड़ा कम हो जाएगा।

उधर बिहार में हाल में हुए उपचुनावों के नतीजे बता रहे हैं कि कोविड-19 की पृष्ठभूमि में विपरीत राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों के बावजूद राजग की बढ़त इस राज्य में बरकरार है। सामान्य परिस्थितियों में चुनाव जीतना भी बड़ी बात होती है, पर यह उल्लेखनीय है कि कोई दल अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में चुनाव जीते। राजनीतिक साख की पूंजी बड़ी रहने पर ही कोई विपरीत परिस्थितियों में चुनाव जीतता है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साख जातीय समीकरण के कारण नहीं, बल्कि काम के कारण है। डेढ़ दशक की सत्ता के बावजूद बिहार में सत्ता विरोधी लहर न होने के पीछे कुछ बात तो है।

नीतीश कुमार ने अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षो से ही विकास और सुशासन पर बल दिया। उनका नारा रहा है-न्याय के साथ विकास। दूसरी ओर मुख्य प्रतिपक्षी दल राजद के नेता की समझदारी रही है कि वोट विकास से नहीं, बल्कि सामाजिक समीकरण से मिलते हैं। अब राजद के लिए चिंतन करने का अवसर आ गया है कि उसे विकास पर भी ध्यान देना चाहिए या सिर्फ समीकरण पर ही जोर देते रहना चाहिए। वास्तव में यही बात दूसरे राज्यों के दलों पर भी लागू होती है।

उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सक्रिय सहयोग और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण हाल में कुछ क्षेत्रों में त्वरित विकास हुआ है। इससे भी बड़ी बात यह हुई है कि उत्तर प्रदेश में जिहादी, अपराधी और माफिया तत्वों के खिलाफ जिस तरह की कठोर कार्रवाई हुई है, उसका कोई दूसरा उदाहरण इस देश के किसी अन्य राज्य में नहीं मिलता। कोरोना काल में योगी सरकार की विफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया गया। नदी किनारे की उन लाशों को भी कोविड का शिकार बताकर प्रदर्शित किया गया, जो खास समुदाय के लोग अपनी परंपरा के अनुसार बालू में गाड़ देते रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में सपा, बसपा, एआइएमआइएम और कांग्रेस के बीच अल्पसंख्यक मतों के लिए खींचतान जारी है। ओमप्रकाश राजभर को पहले लगा था कि अल्पसंख्यक वोट असदुद्दीन ओवैसी खींच लेंगे तो वह उनके साथ हो लिए। किंतु ‘चुनावी मौसम’ पहचान लेने के बाद राजभर सपा की शरण में हो लिए। कांग्रेस की छटपटाहट इसी बात को लेकर अधिक है। राहुल गांधी, सलमान खुर्शीद, राशिद अल्वी, मणिशंकर अय्यर तथा ऐसे अन्य नेताओं के हिंदुत्‍व विरोधी बयानों को कुछ लोग कांग्रेस का भटकाव बता रहे हैं, पर ऐसा है नहीं। यह उनकी मजबूरी है।

एकमात्र सहारा यानी रहा-सहा मुस्लिम वोट भी कांग्रेस के हाथ से निकल रहा है। एक तरफ सपा के अखिलेश यादव और उनके सहयोगी ओमप्रकाश राजभर जिन्ना को गांधी-पटेल की बराबरी के स्वतंत्रता सेनानी बताकर अपना वोट बैंक सुदृढ़ करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर कांग्रेस हिंदुत्‍व पर चोट कर कुछ अल्पसंख्यक वोट हासिल करने की कोशिश में है। कांग्रेस के पास अब कुछ ही राज्यों में मुस्लिम वोट बैंक बचा है और वह भी वहीं जहां वह भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है।

हाल के विधानसभा चुनावों में केरल और बंगाल में कांग्रेस को मुस्लिम वोट लगभग नहीं के बराबर मिले। यदि उत्तर प्रदेश में भी वही हाल हुआ तो उसके लिए अपनी सात सीटें भी बचा लेना मुश्किल होगा। इसीलिए हिंदुत्‍व की आलोचना करने के लिए कांग्रेसी नेतागण ‘ओवर एक्टिंग’ कर रहे हैं। यह उनकी मजबूरी हो गई है। वैसे कांग्रेस दुनिया की एकमात्र राजनीतिक पार्टी है, जो अपने देश के बहुसंख्यक समाज की भावनाओं पर लगातार चोट करके भी चुनाव जीतने की उम्मीद रखती है।

सलमान खुर्शीद ने हिंदुत्‍व की तुलना आइएस और बोको हराम से की। उन्हें लगता है कि इससे कम कड़ी बात कहने से काम नहीं चलेगा। लोग भूले नहीं होंगे कि 2001 में जब वाजपेयी सरकार ने जिहादी संगठन ‘सिमी’ पर प्रतिबंध लगाया था तो उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष सलमान खुर्शीद ही सुप्रीम कोर्ट में सिमी के वकील थे। वह एक ऐसे संगठन के वकील थे, जिसने खुलेआम घोषणा कर रखी थी कि हम हथियारों के बल पर भारत में इस्लामिक शासन कायम करेंगे।

नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए और एनआरसी की चर्चा के बीच अल्पसंख्यक समुदाय किसी एक दल को एकजुट होकर वोट दे रहा है। बंगाल विधानसभा के गत चुनाव के बाद कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था कि कांग्रेस और माकपा के भी मुस्लिम समर्थकों ने इस बार तृणमूल कांग्रेस को वोट दे दिए। केरल में भी ऐसा ही हुआ। वहां ध्रुवीकरण माकपा के पक्ष में हुआ। इससे पहले माकपा सरकार ने पीएफआइ पर प्रतिबंध लगाने की वहां के डीजीपी की सलाह ठुकरा दी थी। डीजीपी ने केरल हाईकोर्ट से कहा था कि सिमी के लोगों ने ही पीएफआइ बनाया है। यदि कहीं भी मुस्लिमों के बीच ध्रुवीकरण होगा तो बहुसंख्यक समुदाय के बीच उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है।

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