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गुजरात में AAP की रेवड़ियां मीठी नहीं कड़वी हैं! समझे पार्टी की वो गलती जो आसान कर रही बीजेपी की जीत का रास्ता

गुजरात के पिछले चुनाव में प्रचार अभियान के आखिरी क्षणों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्णायक दखल ने कांग्रेस की उम्मीदें धराशायी कर दीं। लेकिन इस बार लगता है कि निर्णायक दखल बहुत पहले ही हो चुका है, चुनावी शोर से भी पहले। पीएम ने मुफ्त की रेवड़ियों का मुद्दा उछाला, अरविंद केजरीवाल उसमें उलझे और अब विपक्ष कुछ ऐसे फंसा है जिससे बीजेपी की आसान जीत का रास्ता साफ होता दिख रहा।

ऐसा क्यों है, इसे समझने से पहले चलिए एक बार चुनावी तस्वीर पर नजर डालते हैं जो लोकनीति-सीएसडीएस के ताजा सर्वे में उभरी है।

-बीजेपी बहुमत के करीब दिख रही है

-कांग्रेस और आम आदमी पार्टी बमुश्किल 20 प्रतिशत वोटशेयर का आंकड़ा पार करतीं दिख रहीं

-वोटों का इस तरह के बंटवारे का आमतौर पर मतलब होता है एकतरफा जीत, प्रचंड जीत और इस मामले में बीजेपी की जीत

– कांग्रेस के परंपरागत वोट बेस रहे- पिछड़े समुदायों (कोली, दलित, आदिवासी, मुस्लिम) के साथ-साथ गरीब तबके में आम आदमी पार्टी जबरदस्त सेंध लगाती दिख रही, उसके ज्यादातर वोटर इन्हीं समुदाय से है।

गुजरात में आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब के मुकाबले कम असरदार दिख रही है। इसकी वजह ये कि वहां AAP का सपोर्ट बेस दोनों स्थापित पार्टियों (बीजेपी और कांग्रेस) के परंपरागत वोटरों में था न कि सिर्फ एक पार्टी में।

-आखिर गुजरात में आम आदमी पार्टी की अगुआई में किसी सशक्त गठबंधन का कोई संकेत क्यों नहीं मिला?

-आम आदमी पार्टी अबतक सूबे में बीजेपी के वोट बेस में सेंध लगाने में क्यों नाकाम है? इनमें न सिर्फ अपर कास्ट और पाटीदार हैं बल्कि बड़े पैमाने पर मिडल-क्लास भी शामिल हैं।

इसका जवाब बीजेपी और आम आदमी पार्टी की तरफ से अपने-अपने प्रचार अभियान के दौरान पकड़ी गई राजनीतिक राह में छिपा हुआ है। जब मोदी ने मुफ्त की रेवड़ी डिबेट छेड़ी तब उनका मकसद यही था कि गुजरात के आकांक्षी मध्यम वर्ग को AAP के लोकलुभावन वादों में आने से बचाना। ये नव-मध्यम वर्ग सभी जातियों तक फैला हुआ है।

इसमें हैरानी की कोई बात नहीं कि केजरीवाल ने गुजरात में हाशिए पर पड़े तबकों के बीच पैंठ मजबूत करने के लिए ‘रेवड़ियों’ का मुखर बचाव किया। लेकिन ‘गरीब समर्थक’, ‘विकास विरोधी’ पार्टी के तौर पर प्रचारित होना AAP की संभावनाओं को सीमित करता है। इससे गुजरात में प्रभावशाली फॉरवर्ड कास्ट और मिडल क्लास वोटरों को अपनी तरफ आकर्षित करने में AAP नाकाम हो सकती है।

-ऐतिहासिक रूप से गुजरात वामपंथी-झुकाव वाली लोकलुभावन राजनीति को खारिज करता आया है

-राज्य की कारोबारी पहचान और संस्कृति की वजह से समाजवादी और कम्यूनिस्ट पार्टियां यहां कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई हैं

-बीजेपी से पहले स्वतंत्र और जनता फ्रंट ने गुजरात में कांग्रेस को चुनौती दी

-भारत के तमाम बाकी राज्यों से उलट गुजरात में किसी ऐसी पार्टी का उभार नहीं हुआ जो वंचित तबकों के केंद्र में रखे

आम आदमी पार्टी का गुजरात में पॉपुलिस्ट राजनीति पर जोर देना दिल्ली और पंजाब में उसकी रणनीति से अलग है। बाकी दोनों राज्यों में उसने सबसे पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ हल्ला बोलकर सामाजिक और आर्थिक तौर पर प्रभावशाली वर्गों को लुभाया।

2013 में दिल्ली में अपने पहले चुनावी अभियान में आम आदमी पार्टी को जिन सीटों पर कामयाबी मिलीं, उनमें 70 प्रतिशत ऐसी थीं जो अमीरों के दबदबे वाली थीं। संरक्षणवादी परंपरागत राजनीति के खिलाफ मिडल-क्लास के विद्रोह से पैदा हुई पार्टी का शुरुआत से ही दिल्ली के मिडल क्लास से शानदार कनेक्ट रहा। फिर उसने लोकलुभावन स्कीम्स के जरिए धीरे-धीरे गरीब तबकें के बीच अपना विस्तार किया।

इसी तरह, पंजाब में आम आदमी पार्टी ने भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, ड्रग और आर्थिक बदहाली जैसे मुद्दों को उठाकर सबसे पहले जाट सिख किसानों की प्रभावशाली जाति के साथ-साथ शिक्षित और पेशवर युवाओं को अपनी तरफ खींचा। ‘मुफ्त की रेवड़ियों वाले दिल्ली मॉडल’ की एंट्री बाद में हुई।

दूसरे शब्दों में, दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी ने सबसे पहले सामाजिक-आर्थिक तौर पर प्रभावशाली वर्गों में पैंठ बनाई और फिर कमजोर तबकों को साथ लिया यानी टॉप टु बॉटम अप्रोच। लेकिन गुजरात यह अप्रोच इसके उलट है- बॉटम टु टॉप। इसमें कई मुश्किलें भी हैं।

-AAP की कामयाबी का राज प्रभावशाली क्लासेज हैं और पार्टी उन्हीं पर हद से ज्यादा निर्भर है। इनकी भूमिका नैरेटिव सेट करने और ऑपिनियन-शेपिंग में सबसे अहम होती है। उनके साथ से AAP लहर जैसी हवा बनाने में कामयाब होती है जो बाद में जमीनी हकीकत में तब्दील हो जाती है।

-ये लहर जैसा सेंटिमेंट टॉप टु बॉटम जाता है। लेकिन AAP की दिक्कत ये है कि उसका वोट बेस ज्यादातर वे हैं जो सरकारी योजनाओं से लाभ की उम्मीद करते हैं। उसके पास समुदाय आधारित या विचारधारा आधारित वफादार वोटर नहीं हैं।

-यही वजह है कि जब पार्टी चुनाव जीतने की स्थिति में नहीं दिखती तब वह वैसे ही हवा हो जाती है जैसे उत्तराखंड में हुआ।

गुजरात की बात करें तो यहां के प्रभावशाली तबके सरकार से नीतिगत सपोर्ट को पसंद करते हैं जो उन्हें आर्थिक तौर पर आगे बढ़ने में मददगार हो, न कि सब्सिडी और वेल्फेयर पेमेंट्स जैसा सीधा संरक्षण। उदाहरण के तौर पर, पाटीदार किसान शायद अपने एग्री-बिजनेस के लिए सरकार से समर्थन की ज्यादा उम्मीद करते हैं न कि बिजली बिल माफी की। जबकि पंजाब में जाट किसानों का जोर संभवतः बिजली बिलों को माफ करने पर ज्यादा रहेगा।

आम आदमी पार्टी कोई दूसरा रास्ता अपना सकती थी। लोकनीति सर्वे ने कुछ संकेत दिए हैं। 77 प्रतिशत गुजरातियों को लगता है कि पिछले 5 सालों में भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसका मतलब कि आम लोगों में यह धारणा सबसे मजबूत है कि भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। इसके बावजूद भी यह वोटरों के लिए 8 शीर्ष प्रमुख मुद्दों में शामिल नहीं है।

ऐसे में जब राज्य में भ्रष्टाचार को लेकर इस हद तक हाई परसेप्शन है तब आम आदमी पार्टी का इस मुद्दे पर जोर नहीं देना चौंकाने वाला है। अगर केजरीवाल करप्शन पर फोकस करते तो उन्हें बीजेपी के कमजोर राज्य नेतृत्व से लड़ाई में बढ़त मिलती।

गुजरात की रुढ़ीवादी सोच में मुफ्त की रेवड़ियां बांटने वाले के बजाय शायद सुधारवादी, टेक्नोक्रैटिक केजरीवाल के लिए ज्यादा जगह होती।

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