यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल में आयुष मंत्री रहे धर्म सिंह सैनी ने इस साल की शुरुआत में भाजपा को झटका देते हुए सपा का दामन थाम लिया था। उस दौर में स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी समेत कई पिछड़े वर्ग के नेताओं ने एक के बाद एक भाजपा को छोड़ा तो इसे भगवा दल के लिए झटका माना गया था। हालांकि चुनाव में भाजपा को ही बड़ी जीत मिली और वह 250 से ज्यादा सीटें लेकर सत्ता में लौटी है। यही वजह है कि कुछ महीनों बाद ही हालात बदल गए हैं और झटका देकर जाने वाले नेता वापसी की राह तलाशने लगे हैं। इसमें पहला नाम सहारनपुर के नेता धर्म सिंह सैनी का है, जो विधायकी भी हारे और फिर सपा में कोई पद न मिलने से परेशान थे।
वह आज ही खतौली में सीएम योगी आदित्यनाथ की रैली में भाजपा में शामिल होने जा रहे थे, लेकिन फिलहाल जॉइनिंग टल गई है। हालांकि उन्हें जल्दी ही पार्टी में एंट्री दिलाई जा सकती है। खतौली सीट के उपचुनाव में भाजपा पूर्व विधायक विक्रम सैनी की पत्नी राजकुमारी सैनी को ही लड़ा रही है। इस सीट पर सैनी समुदाय की अच्छी आबादी है। ऐसे में इसी मौके पर धर्म सिंह सैनी को शामिल कराने में भाजपा थोड़ा फायदा भी देख रही है। इसके अलावा मैनपुरी लोकसभा सीट पर भी इसके असर की उम्मीद भाजपा को है। इसकी वजह यह है कि मैनपुरी में शाक्य समुदाय की 2.5 लाख आबादी है। शाक्य सैनी बिरादरी की ही एक उपजाति मानी जाती है। ऐसे में वहां भी धर्म सिंह सैनी के जरिए भाजपा एक संदेश देने की कोशिश में है।
साफ है कि भाजपा की पिछड़े वोटों पर पैनी निगाह और वह नैरेटिव को बिगड़ने नहीं देना चाहती। 2014 से ही लगातार भाजपा सपा से गैर-यादव ओबीसी वोटरों को तोड़ने की कोशिश करती रही है। इसके अलावा बसपा से गैर-जाटव दलितों को तोड़ने का प्रयास रहा है। इस पर लंबे मिशन के बाद उसने सफलता पाई है, जिस पर वह पानी नहीं फिरने देना चाहती। ऐसे में सवाल यह है कि क्या धर्म सिंह सैनी के बाद वे नेता भी वापस लौटेंगे, जिन्होंने सपा का रुख कर लिया था। सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर भी कई बार भाजपा के करीब आने के संकेत दे चुके हैं।
क्यों यूपी में अहम हैं सैनी-कुशवाहा-शाक्य
उत्तर प्रदेश की ओबीसी सियासत में यादवों के बाद सैनी, कुशवाहा, शाक्य और मौर्य मतदाताओं की अच्छी संख्या रही है। इनका जनाधार पश्चिम यूपी, अवध, बुदेलंखड से लेकर पूर्वांचल तक रहा है। इनकी आबादी 10 से 13 फीसदी तक बताई जाती है। ऐसे में भाजपा इन पर खास फोकस करती रही है। यादवों के मुकाबले वह स्थानीय स्तर पर दूसरी ताकतवर ओबीसी जातियों पर फोकस करती रही है। इसके अलावा कुछ इलाकों में तो वह यादवों को भी तोड़ने की कोशिश में रही है, जहां अखिलेश यादव का प्रभाव कम रहा है।