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छत्तीसगढ़

Chhattisgarh: बस्तर में बांस से बने सामानों का डिमांड हुआ कम, कारीगरों को हो रहा नुकसान

डिमांड कम होने के कारण बांस कला से जुड़े ग्रामीणों की आजीविका पर भी बुरा असर पड़ रहा है. बांस की जगह अब प्लास्टिक और फायबर ने जगह ले ली है.

Chhattisgarh News: आधुनिकता के दौर में अब धीरे-धीरे बस्तर की कला विलुप्त होते जा रही है. बांस से बनाए जाने वाले सामान की डिमांड भी घटती जा रही है. डिमांड कम होने के कारण बांस कला से जुड़े ग्रामीणों की आजीविका पर भी बुरा असर पड़ रहा है. बांस से करीब एक दर्जन से ज्यादा सामान तैयार किए जाते हैं, लेकिन अब प्लास्टिक और फायबर ने जगह ले ली है. प्लास्टिक और फायबर के सामानों का चलन बढ़ने से धीरे-धीरे डिमांड भी पहले से काफी घट गई है.

प्लास्टिक और फायबर ने ली जगह

छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र बस्तर में बांस एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक सामग्री है. बांस का उपयोग अनेक प्रकार से किया जाता है. अबूझमाड़ की पुरातन सभ्यता से जुड़ी प्राचीनतम सामानों में से एक बांस की टोकरी का प्रचलन अब धीरे-धीरे कम होने लगा है. सिर्फ टोकरी ही नहीं बल्कि सूपा, झांपि, कुमनी, डाली, झाल, डगरा, हाथ पंखा, चाप का इस्तेमाल भी धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं. अबूझमाड़ क्षेत्र में व्यावसायिक समाज के लोग बांस से सामान बनाकर आजीविका भी चलाते हैं.

बांस से बनी कई प्रकार की वस्तुओं के बीच अबूझमाड़ क्षेत्रो में सबसे सामान्य और सबसे अधिक प्रयोग में की जानेवाली वस्तु है बांस की टोकरी. छोटे बड़े आकारों में टोकरी बनाई जाती है. अबूझमाड़ के अधिकांश घरों में बांस से बनी छोटी बड़ी टोकरी को देखा जा सकता है. साथ ही तीज त्यौहारों,व अनुष्ठानों के अलावा रोजमर्रा में भी बांस और मुज से बने सामानों का बहुतायात में प्रयोग किया जाता है. ये बात अलग है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में पौराणिक महत्व के सामान अब समाप्त होते जा रहे हैं. इनकी जगह प्लास्टिक, पीतल, स्टील के बर्तनों ने ले ली है.

तेजी से घट रहा है बांस का चलन 

बांस की कला से जुड़े आदिवासी समुदाय के लोगों का कहना है कि सबसे ज्यादा बांस की टोकरी का चलन कम हो गया है और इसकी जगह प्लास्टिक और फायबर ने ले लिया है. पहले शहरी क्षेत्र के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी बांस से बनी वस्तुओं की उपयोगिता काफी अधिक होती थी और इसका चलन भी काफी ज्यादा था. लेकिन अब धीरे धीरे चलन घटने से बांस कला से जुड़े आदिवासी व्यवसायियों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है.

प्रशासन भी कला को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ खास पहल नहीं कर रहा है, हालांकि राज्योत्सव और शासकीय प्रदर्शनी के दौरान बांस कला से जुड़े सभी वस्तुओं का स्टॉल  जरूर लगता है लेकिन पहले के मुकाबले अब धीरे-धीरे डिमांड घटी है और खासकर बांस से बने टोकरी और कुछ सामान चलन से बाहर होते जा रहे हैं.

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