OPS की वापसी की मांग एक बार फिर जोर पकड़ रही है. पुरानी पेंशन योजना पेंशनधारक के लिए जितनी ही अच्छी हो, देश की आर्थिक हालत और अंत में करदाताओं के लिए तो यह अभिशाप ही दिखाई देती है.
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नई दिल्ली. ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर प्रदर्शन एक बार फिर जोर पकड़ रहा है. 2004 में जब से इस पर रोक लगी तभी से इसे दोबारा लागू करने की मांग उठ रही है. कभी मांग थोड़ी धीमी पड़ती है तो कभी इसमें बहुत तेजी आ जाती है. इसका राजनीतिक पहलू जो भी हो, अर्थव्यवस्था के लिहाज से तो यह ठीक नहीं ही लगती है. ओल्ड पेंशन स्कीम या ओपीएस पेंशनधारकों के लिए एक वरदान है इसमें कोई संदेह नहीं है.
कर्मचारी की आखिरी सैलरी का 50 फीसदी हिस्सा महंगाई भत्ते के साथ दिया जाना किस पेंशनधारक को पसंद नहीं आएगा. इतना ही नहीं पेंशनधारक की मृत्यु के बाद भी उसके आश्रित को पेंशन मिलती रहेगी. साथ ही सरकार द्वारा महंगाई भत्ते में जो संशोधन किया जाता है उसका लाभ भी ओल्ड स्कीम वाले पेंशनधारकों को मिलता रहेगा. यही कारण है कि कर्मचारी व पेंशनधारक ओल्ड पेंशन स्कीम को वापस लाने की मांग कर रहे हैं. लेकिन इससे देश और यहां के करदाताओं की जेब पर क्या असर होगा, इस पहलू को भी देखने की जरूरत है.
क्या है दिक्कत?
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ओल्ड पेंशन स्कीम के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा. OPS के लिए कोई अलग से फंड नहीं जुटाया जाता है जो कि बढ़ता रहे और पेंशन के लिए जरूरी रकम पूरी होती रहे. यह लोगों से प्रत्यक्ष (इनकम टैक्स) या अप्रत्यक्ष रूप (वैट, कस्टम ड्यूटी) से लिया गया पैसा है जिसका इस्तेमाल सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों को पेंशन देने के लिए किया जाता है. इससे सरकारी खजाने और अंतत: देश की अर्थव्यवस्था पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है. सरकार हर बजट में इसके फंड एलोकेट करती थी लेकिन ये आगे कब तक और कैसे चलता रहेगा इसे लेकर कोई प्लान नहीं था.
लगातार बढ़ती जाएगी देनदारी
पेंशनधारकों को एक फिक्स अमाउंट देना होता तो शायद कोई तरीका निकाला भी जाता. इसके साथ एक और बड़ी दिक्कत यह है कि डीआर (डियरनेस रिलीफ) यानी महंगाई भत्ता भी साल-6 महीने पर बढ़ता रहता है इससे सरकार की देनदारी भी बढ़ती रहती है. जब केवल फिक्स पेंशन के लिए ही फंडिंग का कोई तरीका नहीं है तो लगातार हो रहे बदलाव की पूर्ति के लिए रकम कहां से आएगी.
कई राज्य कर चुके लागू
साफ दिख रही परेशानियों को अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले अतिरिक्त दबाव के बावजूद कई राज्य इसे दोबारा से लागू कर चुके हैं. ऐसा क्यों किया गया इसका जवाब समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है लेकिन अंत में राज्य के खजाने को इसका दंश झेलना पड़ेगा. इसका असर आम टैक्सपेयर्स की जेब पर दिखेगा.