Thangalaan Movie Review: हाल ही में सिनेमाघरों में चियान विक्रम और मालविका मोहना की मच अवेटेड फिल्म ‘थंगलान’ रिलीज हो चुकी हैं और अगर भी इसको देखने का मन बना रहे हैं तो एक बार इसका रिव्यू जरूर पढ़लें और जान लें कि फिल्म कैसी है? फिल्म में क्या कुछ है खास?
Thangalaan Movie Review: पी ए रंजीत की फ़िल्मों का एक अलग दर्शक वर्ग है और वो उनका जबरा प्रशंसक है, लेकिन विक्रम सबके चहेते हैं, दक्षिण से लेकर उत्तर तक. क़बाली और काला जैसी सुपरहिट चर्चित फ़िल्में रजनीकांत के साथ करने के बाद इस बार पी ए रंजीत ने उन पर दाव लगाया था और विक्रम ने वाक़ई में ऑस्कर अवार्ड लायक़ मेहनत कर दी है. यूँ रंजीत ने भी आईडिया तो शानदार खोजा था , लेकिन कमर्शियल और एंटरटेनमेंट के नज़रिए से देखा जाये तो लगता है कहीं तो वो चूक गये हैं. थंगलान यूँ तो अगस्त में ही रिलीज़ हो चुकी है लेकिन हिन्दी में इसी हफ़्ते आयी है
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कहानी है KGF यानी कोलार गोल्ड फ़ील्ड की, दावा है कि ये असली कहानी से प्रेरित है. ब्रिटिश राज में अंग्रेजों के एक दल को तलाश है उन सोने की खानों की, जिनसे चोल राजा और टीपू सुल्तान सोना निकाला करते थे. जिस इलाक़े में वो तलाश रहे थे यानी आज के कर्नाटक के अर्कोट ज़िले में, वहाँ के एक गाँव में रहता था थंगलान (विक्रम) यानी सोने का बेटा.
फिल्म की कहानी..
वो एक मामूली किसान था, जो रैयतवाडी व्यवस्था के तहत उपज का आधा हिस्सा जमींदार को दे देता था. ज़ाहिर है दलित था, रंजीत ने ऊँची जाति, ब्राह्मण विरोधी या जमींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ बयान उसी किरदार से कहलाये हैं. एक दिन वो अपने बच्चों को अपने दादा की कहानी बताता है कि कैसे हाथी के आकार वाली पहाड़ी के पास आदिवासी नेता उसके दादा (विक्रम) नदी के पानी को छानकर सोना निकाल रहे थे, लेकिन राजा आ गया. राजा के साथ आये एक ब्राह्मण को जब सोने का टीला दिखा तो सब उधर भागे. लेकिन पहले साँपों ने, फिर भालों ने रोक दिया. तब उसके दादा ने बताया कि मायावी आरती उस सोने की रक्षा करती है और ज़मीन मिलने की शर्त पर वो वीरता से उससे भिड़ गया.
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थोड़ा सोना मिल भी गया. हालाँकि बाद में ये लगा भी कि अब तक क्यों वो नदी से ही सोना निकालने में लगा था.तब से उस पहाड़ी की तरफ़ लोगों ने जाना बंद कर दिया और डरने डराने लगे. इधर थंगलान की फसल में आग लगाकर ज़मींदार ने उसके परिवार को ग़ुलाम बना किया लेकिन अंग्रेजों के दल ने जब उसे अच्छे पैसे का प्रस्ताव दिया तो वह बेटे और कुछ साथियों के साथ सोना खोजने निकल पड़ा. आगे लड़ाई है मायावी आरती को हराकर सोने पर क़ब्ज़े की.
मूवी को सुपरहिट होना बनता ही था..
कहानी में सोना है, विक्रम है, मायावी शक्तियाँ है, और भगवान बुद्ध भी. ऐसे में मूवी को सुपरहिट होना बनता ही था और मूवी देखने के बाद आपको लगेगा कि विक्रम की परफॉरमेंस ऑस्कर के स्तर की है, किसी गरीब दलित के किरदार में वो काफ़ी गहरे उतर गये हैं. यूँ वो 5 किरदारों में हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा स्क्रीन स्पेस इसी को मिला है. उनके अलावा मालविका मोहनन भी हैं, मायावी आरती के किरदार में. दोनों इस मूवी पर छाए हुए हैं. बिक्रम की पत्नी के किरदार में पार्वती तो कमाल करती ही हैं, चुलबुली महिला के तौर पर प्रीति करन का रोल भी बेहतरीन है.
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वज्रयानी बौद्घ धर्म पर किया गया फोकस
ऐसा पहली बार हुआ है कि वज्रयानी बौद्घ धर्म पर किसी फ़िल्मकार ने फोकस किया हो, अब तक खजाने के आसपास काली, भैरव, शिव, हनुमान, दुर्गा जैसे देवी देवताओं की मूर्ति या पूजा फ़िल्मों में दिखायी जाती रही है, लेकिन पी ए रंजीत ने भगवान बुद्ध की मूर्ति को बड़े ही रहस्यमय तरीक़े से फ़िल्म में इस्तेमाल किया है. ‘स्त्री2’ के सरकटा की तरह भी. थंगलान के बेटे का नाम भी अशोका रखता है. पुरानी फ़िल्मों की तरह वो सनातन व्यवस्थाओं पर सवाल उठाने, मजाक उड़ाने से परहेज़ नहीं करते. राजा के साथ आये ब्राह्मण का नीची जाति का कहकर थंगलान का मज़ाक़ उड़ाना या फिर बुद्ध की मूर्ति को देखकर एकदम से ग़ुस्सा होकर उसे तोड़ने को कहना, उसी दिशा में था. हालांकि जनेऊ बांट रहे ब्राह्मण का दलितों को भी जनेऊ पहनाने का आग्रह थोड़ा अलग था. पत्नी का नाम गंगम्मा भी.
ये भी समझ नहीं आया कि पूरी मूवी में उन गांव वालों से लेकर अंग्रेज अफ़सरों तक कोई भगवान बुद्ध की मूर्ति को पहचानकर उनका नाम क्यों नहीं ले रहा था, सब उन्हें मुनि बोल रहे थे. ये अलग बात है कि उन्होंने इस मूवी के ज़रिए रंजीत ने ना केवल बुद्ध के ‘दुख का कारण इच्छा’ का संदेश भी दिया और साथ में हाशिये पर पड़े लोगों के लिए हालात बदलने के लिए धन व ताक़त बटोरने की ज़रूरत भी समझाई. ऐसे ही गरीब महिलाओं को ब्लाउज मिलने के बाद की प्रतिक्रिया वाला सीन भी दिल छूने वाला था.
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फ़िल्म के साथ जुड़ी कुछ समस्याएं..
फ़िल्म के साथ कुछ और भी समस्याएँ हुईं, एक तो इसकी लंबाई कम से कम बीस मिनट आराम से कम की जा सकती थी, दूसरे हिन्दी डबिंग में पहला ही गाना बेहद बेसुरा हो गया है, साउथ की फ़िल्मों से हिन्दी की जनता को अब ओ सामे, श्री वल्ली, सलाम रॉकी भाई या स्वामी देना साथ हमारा जैसे मस्त गीतों की उम्मीद रहती है, हालाँकि बाक़ी के गाने अच्छे लगते हैं लेकिन ऐसा हिट कोई होने लायक़ नहीं. कमी ये भी लगती है कि कभी आदमी ताकतवर हो जाता है तो कभी मायावी शक्तियाँ, लेकिन बिना लॉजिक के. मायावी आरती का मरने के बाद फिर आम हथियार से मरने का लॉजिक भी समझ से बाहर था.
अक्सर रंजीत सिम्बोलिस्म और रियलिटी दिखाने के फेर में ये भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति मूवी क्रांति के लिये देखने नहीं आता बल्कि मनोरंजन के लिए भी देखता है, ग़रीबी तो ‘लगान’ ने भी दिखाई थी, दूसरी दुनियाँ के पात्र तो ‘कान्तारा’ ने भी दिखाये, लेकिन ‘थंगलान’ में ये थोड़ा बोर करते हैं, क्योंकि आपने कमर्शियल फ़िल्म बनायी है.
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एक बार फिल्म जरूर देखें
बावजूद इसके आप फ़िल्म को ख़ारिज क़तई नहीं कर सकते, फ़िल्म का विषय और विक्रम की एक्टिंग दोनों इंटरनेशनल लेवल के हैं, नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड्स के लिए तो मजबूर दावेदारी इस मूवी की है ही, ऑस्कर अवॉर्ड्स में भी इस मूवी के लिए संभावनायें बेहद प्रबल हैं. इसलिए जो सिनेमा प्रेमी प्रयोग धर्मी हैं, केवल एंटरटेनमेंट के लिए फ़िल्में नहीं देखते, विक्रम के जबरा फ़ैन हैं या फिर पी ए रंजीत की तरह की सामाजिक जागरूकता की फ़िल्मों को पसंद करते हैं, उनके लिए मूवी ‘मस्ट वॉच’ है.