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बजट बिगुल 2022-23 :गांव सा सुख न शहर जैसी सुविधा, अब कस्बों को बजट से आस

स्लम जैसी हालत में गुजर-बसर कर रहे ऐसे लोगों की मुश्किलें और चुनौतियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांवों और शहरों के बीच त्रिशंकु बनी ऐसी बड़ी आबादी के लिए आगामी वित्त वर्ष 2022-23 के आम बजट में कुछ बड़ी राहत की घोषणा की उम्मीद है।

सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नई दिल्ली। न गांव सा सुख है और न ही शहर जैसी सहूलियत। शहरीकरण की अंधी दौड़ में छोटे-मझोले कस्बे कुछ यूं त्रिशंकु में फंस गए हैं। गांव से निकलकर कस्बों व बाजार में बसी जनता खुद को ठगा महसूस कर रही है। उसे न तो गांव जैसी साधारण सुविधा मिल पा रही है और न ही शहरों जैसी सहूलियतें। स्लम जैसी हालत में गुजर-बसर कर रहे ऐसे लोगों की मुश्किलें और चुनौतियां दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं। गांवों और शहरों के बीच त्रिशंकु बनी ऐसी बड़ी आबादी के लिए आगामी वित्त वर्ष 2022-23 के आम बजट में कुछ बड़ी राहत की घोषणा की उम्मीद है।गांवों की मुश्किलों से पलायन कर शहरों की ओर मुखातिब होने वाली जनता के ट्रेंड को लेकर सर्वेक्षण जरूर होते रहे हैं, लेकिन सरकार के पास ताजा वास्तविक आंकड़े नहीं हैं। इसीलिए आगामी जनगणना में इसे शामिल किया गया है ताकि समस्या की गंभीरता को देखते हुए उसके समाधान के बारे में नीतिगत निर्णय लिए जा सकें।

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पिछले दिनों नीति आयोग में शहरी विकास मंत्रालय के साथ ग्रामीम विकास और पंचायती राज मंत्रालय के केंद्र व राज्य सरकारों के आला अफसरों के बीच गहन विचार-विमर्श किया गया। इस दौरान ऐसे गैर-अधिसूचित कस्बों को विकसित करने और उन्हें मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर विचार किया गया। कोविड-19 की वजह से वर्ष 2021 में प्रस्तावित जनगणना नहीं हो सकी है, जिसे आगे बढ़ा दिया गया है। इसी जनगणना में गांवों-शहरों के सटीक आंकड़े प्राप्त होंगे, जिसमें इनकी सामाजिक व आर्थिक दशा का भी पता चलेगा। गांव के निकलकर आसपास अस्त-व्यस्त कस्बों में बसने वाले शहरों जैसी सुविधा के मोह में फंस गए। अधिसूचित कस्बा अथवा नगर क्षेत्र न होने की वजह से यहां नगर निकाय जैसे फंड नहीं मिल पा रहे हैं।

इसके अभाव में यहां के लोग स्लम जैसी हालत में रहने को मजबूर हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के नतीजे बताते हैं कि उस समय देश में शहरों की संख्या तेजी से बढ़ी थी। रिपोर्ट के मुताबिक देश में गांवों के मुकाबले अधिक शहर बसे हैं। देश की हिंदी पट्टी में ऐसे गांवों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जहां की शत प्रतिशत आबादी पलायन कर चुकी है। जिस रोजगार की तलाश में लोग पलायन कर रहे थे, उसी ट्रेंड पर काबू पाने के लिए मनरेगा जैसी योजना से बड़ी उम्मीदें थी। उसका नतीजा आगामी जनगणना में प्राप्त हो सकता है।पिछली जनगणना में पता चला कि देश में 2,400 नए शहर इन्हीं त्रिशंकु कस्बों को जोड़कर बने थे। भारत में शहरीकरण की रफ्तार दूसरे देशों के मुकाबले ज्यादा है।

शहरों की आबादी 39 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। बी-श्रेणी के शहर इसी कटेगरी में आते हैं। ¨हदी पट्टी के राज्य बिहार और उत्तर प्रदेश के सबसे ज्यादा शहर इनमें शामिल हुए। शहरी विकास के जानकारों की मानें तो वर्ष 2010 के बाद से देश में शहरीकरण की रफ्तार और तेज हुई है। देश में फिलहाल चार तरह के शहरी निकाय वर्गीकृत किए गए हैं। इनमें पहला साधारण नगर है, जिसकी आबादी 20 हजार से लेकर एक लाख के बीच होती है। देश में फिलहाल ऐसे नगरों की संख्या 3,587 है। जबकि क्लास-वन नगर की आबादी एक लाख से दस लाख के बीच होती है। इनकी संख्या 468 है।

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