Use of Antibiotics: भारत के अलग-अलग अस्पतालों के आईसीयू में इस वक्त जो मरीज भर्ती हैं उनमें से कई मरीजों की जान इसलिए नहीं बच पाती क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं करती. भारतीय इतनी एंटीबायोटिक दवाएं खा चुके हैं कि अब इन दवाओं ने असर करना ही बंद कर दिया है.
Lancet Report: हमारी आज की खबर में हम आपकी अच्छी सेहत की कामना कर रहे हैं, लेकिन आपको सावधान करते हुए. हम नहीं चाहते कि आप कभी बीमार पड़ें, लेकिन ये सभी सच है कि भारत के अलग-अलग अस्पतालों के आईसीयू में इस वक्त जो मरीज भर्ती हैं उनमें से कई मरीजों की जान इसलिए नहीं बच पाती क्योंकि उन पर एंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं करती. भारतीय इतनी एंटीबायोटिक दवाएं खा चुके हैं कि अब इन दवाओं ने असर करना ही बंद कर दिया है. हाल ही में भारत में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रयोग को लेकर लैंसेट की एक रिपोर्ट आई है. इस रिपोर्ट में कई खुलासे हुए हैं.
– भारत में एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल ज़रूरत से ज्यादा हो रहा है.
-एज़िथ्रोमाइसिन सबसे ज्यादा इस्तेमाल में आने वाली एंटीबायोटिक है.
– लगभग आधी एंटीबायोटिक बिना अप्रूवल के प्रयोग हो रही हैं.
इस रिसर्च को बारीकी से देखने पर समझ में आता है कि एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल पर भारत में कोई कंट्रोल नहीं है. लैंसेट की इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 44% Antibiotic दवाएं बिना अप्रूवल के प्रयोग हो रही हैं. केवल 46% दवाओं को सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन (CDSCO) से अप्रूवल मिला हुआ है. रिपोर्ट में एजिथ्रोमाइसिन दवा के दुरुपयोग का खास जिक्र है. ऐसा इसलिए हुआ कि कोरोना काल में कई राज्य सरकारों ने कोविड के इलाज के प्रोटोकॉल में एंटीबायोटिक दवा एज़िथ्रोमाइसिन को रखा था और कई लोगों ने खुद भी कोविड होते ही एज़िथ्रोमाइसिन खानी शुरू कर दी थी.
‘कोरोना में बेवजह दी गई एंटीबायोटिक’
एम्स के पब्लिक हेल्थ एक्सपर्ट डॉ संजय राय के मुताबिक कोरोनावायरस एक वायरल बीमारी है. जैसे इस बीमारी में एंटीबायोटिक बेवजह दे दी गई. ठीक उसी तरह भारत में सर्दी जुकाम जैसे वायरल इंफेक्शन होने पर एंटीबायोटिक दवाएं लिखने वाले डॉक्टर भी कम नहीं हैं. नतीजा ये होता है कि जब असल में एंटीबायोटिक दवाओं की जरूरत पड़ती है तब तक वो शरीर पर असर करना ही बंद कर चुकी होती हैं. एंटीबायोटिक दवाओं की सबसे ज्यादा जरूरत सर्जरी के बाद बैक्टीरियल इंफेक्शन से मरीज को बचाने में होती है. गंभीर निमोनिया, ज़ख्म जैसे इंफेक्शन में एंटीबायोटिक दवा काम आती है, लेकिन अब हालात ये हैं कि आईसीयू में भर्ती गंभीर मरीजों पर कई एंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं करती और वो बैक्टीरियल इंफेक्शन की चपेट में आकर मारे जाते हैं.
बीएलकपूर अस्पताल के आईसीयू में हमने डॉ राजेश पांडे से बात की, जिन्होंने बताया कि भारत में सीधे एडवांस एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की जाती हैं और वर्षों से कोई नई एंटीबायोटिक दवा बनी नहीं हैं जिससे मरीजों के लिए खतरा बढ़ रहा है. एंटीबायोटिक दवाएं क्यों हो रही हैं बेअसर, ये समझने के लिए पहले ये समझना जरूरी है कि एंटीबायोटिक दवा काम कैसे करती हैं और इसकी जरूरत कहां होती है.
एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया से लड़ती हैं, लेकिन मरने से पहले बैक्टीरिया खुद को बचाने के लिए पूरी जान लगा देते हैं. वे जीन के ढांचे यानी अपनी मूल शक्ल में बदलाव कर के नए तरह के प्रोटीन बनाने लगते हैं. यहां तक कि उनमें इतनी क्षमता होती है कि वे कोशिका की दीवार की मरम्मत कर लें और दीवार के चारों ओर एक ऐसा सुरक्षा कवच बना लें कि दवा उनमें प्रवेश ही ना कर सके. जब किसी दवा को बार बार खाया जाता है तो बैक्टीरिया पहचानने लगते हैं कि दवा क्या असर करेगी. ऐसे में वे उस प्रोटीन का बनना रोक देते हैं और नए प्रोटीन बना कर खुद को जीवित रखने में कामयाब होते हैं.
2019 में चंडीगढ़ के पीजीआई संस्थान में हुई एक रिसर्च में पाया गया कि भारतीयों पर एंटीबायोटिक दवाएं तेज़ी से बेअसर साबित हो रही हैं. 207 मरीज़ों पर की गई स्टडी में 139 मरीज़ों पर एक या एक से ज्यादा एंटीबायोटिक दवाएं काम नहीं कर रही थीं. रिसर्च में शामिल 2 फीसदी लोग ऐसे भी थे जिन पर किसी दवा ने काम नहीं किया.
भारत में एक बड़ा हिस्सा ऐसे मरीज़ों का है जो खुद के डॉक्टर बन जाते हैं और अपनी मर्ज़ी से ही केमिस्ट से दवा लेकर खा लेते हैं. कभी पुरानी प्रिस्क्रिप्शन के आधार पर, कभी अपने किसी जानने वाले के अनुभव के आधार पर तो कभी केमिस्ट से पूछ कर दवा खा लेने की आदत में भारतीय अव्वल नंबर पर आते हैं, लेकिन डॉक्टरों का भी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो बिना ज़रूरत के मरीजों को एंटीबायोटिक दवाएं लिख देता है. बिना ये जांच किए कि मरीज़ को असल में इसकी ज़रूरत है भी या नहीं.
आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि अगर ब्रहमास्त्र को चूहे मारने के लिए चला दिया जाए तो शेर सामने आने पर लाठी निकालनी पड़ेगी, क्योंकि ब्रहमास्त्र तो चूहे पर बर्बाद कर दिया गया. दुनिया इस वक्त 1928 से पहले की हालत में है, जब एंटीबायोटिक दवाओं का अविष्कार नहीं हुआ था. फिर पेंसिलिन नाम की पहली दवा ईजाद हुई और कई बीमारियां इसी दवा के असर से जादुई तरीके से ठीक होने लगी.
एंटीबायोटिक दवाओं का ये जादू ऐसा चढ़ा कि ये दवाएं डॉक्टर हर बीमारी में खिलाने लगे और फिर मरीज़ खुद ही खाने लगे. लेकिन अब चुनिंदा एंटीबायोटिक दवाएं हैं और बीमारी के हज़ारों ताकतवर बैक्टीरिया दवाओं पर भारी पड़ रहे हैं.
Lancet Planetary Health की एक स्टडी में ये पाया गया था कि भारत में स्वास्थ्य पर कम खर्च होना एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की बड़ी वजह हैं. देश के छोटे शहरों में बने स्वास्थ्य केंद्रो पर डॉक्टरों का नदारद रहना, जो डॉक्टर मौजूद हैं उन्हें इस बारे में जागरुकता की कमी कि किस मामले में एंटीबायोटिक दवा देनी है और कौन सी एंटीबायोटिक दवा देनी है ये ऐसी वजहें हैं जिन्हें एंटीबायोटिक दवाओं के काम न करने की बड़ी वजहें माना गया है.
कई विकसित देशों में डॉक्टर को एंटीबायोटिक दवा लिखने से पहले उसकी वजह दर्ज करनी होती है कि क्यों उसे एंटीबायोटिक दवाएं लिखनी पड़ रही हैं. हालांकि भारत में भी ऐसी गाइडलाइंस हैं कि केमिस्ट एंटाबायोटिक दवाओं का रिकॉर्ड रखें – बिना प्रिस्क्रिप्शन के ये दवाएं न दें, लेकिन सच क्या है ये अपने देश में किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है. केमिस्ट एसोसिएशन के कैलाश गुप्ता के मुताबिक भारत में पॉलिसी बनना और उसका लागू होना दो अलग बाते हैं.
सरकार की नई एंटीबाय़ोटिक पालिसी पर में ऐसे प्रावधान हैं कि छोटे नर्सिंग होम्स या क्लीनिक एडवांस स्तर की एंटीबाय़ोटिक दवा इस्तेमाल ना करें.डॉक्टरों को भी ट्रेनिंग देने की तैयारी की जा रही है कि हर मामले में सीधे रामबाण निकालने की आदत से बाज आएं. लेकिन ये तैयारियां पिछले कई सालों से चल रही हैं और अब बहुत देर हो चुकी है.
जिस तेज़ी से एग्रीकल्चर, पोल्ट्री यानी सब्जियों और जानवरों में पैदावार बढ़ाने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल बढ़ रहा है – वहां से मुर्गी, बकरी, यहां तक कि गाय भैंस के दूध को जरिए भी इंसानों तक बिना जरुरत के एंटीबायोटिक दवाएं पहुंच रही हैं. एक अनुमान के मुताबिक एंटाबायोटिक दवाओं का 70 फीसदी इस्तेमाल फार्मिंग में हो रहा है और 30 फीसदी इंसानों में. अमेरिका जैसे विकसित देशों में कृषि में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बंद कर दिया गया है.
अमेरिका में सिस्टम एंटीबायोटिक दवाओं पर इतनी नज़र रखता है कि कोई डॉक्टर एंटीबायोटिक दवा लिखता है तो उसे वजह बतानी होती है, कि वो ये दवा क्यों लिख रहा है. ऐसे में डॉक्टर सोच समझकर ही इस वंडर ड्रग को लिखता है. यानी अगर हमें जान बचानी है तो सरकार को सिस्टम को सख्ती से लागू करना होगा, खेती में एंटीबायोटिक पर लगाम लगानी होगी और हमें खुद का डॉक्टर बनने की आदत बदलनी होगी.