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दास्तान-गो : अमिताभ बच्चन, अगर ‘सदी के महानायक’ कहलाए तो क्यों?

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Daastaan-Go ; Amitabh Bachchan Birth Anniversary : यहां से इस दास्तान पर फिर ग़ौर कीजिए जनाब. इसमें झलक मिलेगी कि 10 फिल्मों में अमिताभ साहब के साथ काम कर चुकीं रेखा जी ने वाक़’ई उनसे बहुत-कुछ सीखा है. आवाज़ का उतार-चढ़ाव, शब्दों का चयन, संयम, आत्म-विश्वास के साथ विपरीत हालात-सवालात का सामना करना और उनके बीच से बिना किसी बहस-ओ-मुबाहसा को हवा दिए साफ़-सुथरे निकल जाना भी. मुस्कुराते हुए.

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, हिन्दी फिल्मों की दुनिया से त’अल्लुक़ रखने वाली कोई शख़्सियत अगर ‘सितारा’, ‘सुपर-सितारा’ (सुपर-स्टार) या ‘महा-सितारा’ (मेगा-स्टार) कहलाए तो एक बात. क्योंकि उसकी अदाकारी, मशहूरियत, वग़ैरा का पैमाना जताने के लिए अक्सर इस तरह कहा ही जाता है. लेकिन इसी फिल्मी-दुनिया की एक शख़्सियत अगर ऐसे पैमानों का दायरा लांघकर उनसे भी आगे निकल जाए तो? उन्हें ‘महानायक’ कहा जाने लगे. वह भी ‘सदी का महानायक’ तो? यानी ऐसा, जो सैकड़ा साल में पहली बार हुआ? जी जनाब, ज़ाहिर बात अमिताभ बच्चन की ही है. उन्होंने आज, 11 अक्टूबर को उम्र का 80वां साल (1942 में, उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में पैदाइश) पूरा किया है. तो अब सोचिए जरा उनके बारे में इस मौके पर कि आख़िर ऐसी क्या ख़ास बातें रही होंगी, जिन्होंने अमिताभ बच्चन को ‘सदी का महानायक’ बना दिया? ऐसा क्या है, जो ‘सितारा’, ‘सुपर-सितारा’ अदाकारों से अमिताभ साहब को अलग करता है?

इस दास्तान में एक कोशिश करते हैं, इन सवालों के ज़वाब देने की. शुरू से शुरू करने के बजाय वहां से शुरू करते हैं, जहां से ‘सिलसिला’ कल, यानी 10 अक्टूबर को मशहूर अदाकारा रेखा जी के जन्मदिन की दास्तान में छूटा था. उससे आगे. साल 1976 की बात है. उस वक़्त एक फिल्म आई ‘दो अनजाने’. उसमें अमिताभ साहब और रेखा जी ने एक साथ काम किया. तभी से इन दो ‘बड़ी शख़्सियतों’ का नाम साथ-साथ लिए जाने का ‘सिलसिला’ चल निकला. इस रिश्ते पर ‘सिलसिला’ के ही नाम से एक फिल्म (1981 में) भी बनी. बहुत से सवालों के ज़वाब मिले इसमें, जिसकी कहानी को रेखा जी ने ख़ुद बीबीसी-हिन्दी को दिए एक इंटरव्यू के दौरान ‘सच्चाई के नज़दीक’ कहा. इसके बावजूद ‘सिलसिला’ नहीं थमा. सो, इसी ‘सिलसले’ की एक कड़ी के दौरान मशहूर अदाकारा रहीं सिमी गरेवाल ने भी एक मर्तबा रेखा जी का इंटरव्यू (अक्टूबर 2012 से यू-ट्यूब पर) लेते हुए उनसे अमिताभ साहब के बाबत सवाल पूछ लिया.

इस पर रेखा जी का जवाब, ‘फिल्मी दुनिया में उनसे (अमिताभ साहब) कई मायनों में सीनियर हूं मैं. इसके बावजूद ‘अमिताभ बच्चन- द अल्टीमेट एक्टर’ के सामने पहली बार खड़े होना आसान नहीं था. उस वक़्त जब मुझे पता चला कि ‘दो अनजाने’ में अमित जी को लिया गया है, तो वह बढ़िया बात थी मेरे लिए. तब उनकी ‘दीवार’ (1975) पिक्चर रिलीज़ ही हुई थी. ज़बर्दस्त हिट रही थी. हर तरफ़, हर कोई ‘अमित जी’, ‘अमित जी’ के नाम का चर्चा कर रहा था. तब तक मुझे उनके साथ बात करने का कभी वक़्त नहीं मिला था. मैं जया प्रदा जी के ब्वॉयफ्रेंड और फिर पति (अमिताभ साहब और जया जी की शादी 1973 में हुई) के रूप में ही उन्हें जानती थी. और कुछ ज़्यादा पता नहीं था. लेकिन जब फिल्म में मैंने उनके साथ काम शुरू किया तो बहुत नर्वस हो गई. मुझे याद है, एक बार मैं अपनी लाइनें ठीक से बोल नहीं पा रही थी. तो अमित जी कुछ देर सुनते रहे. फिर बोले- सुनिए, कम से कम डायलॉग याद कर लीजिएगा’.

‘उसके बाद तो… फिर मैंने ग़ौर करना शुरू किया. किस तरह से वे काम करते हैं. कितना अनुशासन है उनमें. फिल्म के डायरेक्टर के सामने तो एकदम फ़रमा-बरदार नज़र आते हैं. डायरेक्टर के लिए कितना सम्मान है उनके मन में. मैंने किसी दूसरे अदाकार या अदाकारा के भीतर इस तरह का रवैया इससे पहले कभी नहीं देखा था. वहां से मैंने धीरे-धीरे उनके तौर-तरीकों से काफ़ी-कुछ सीखा. मसलन- यह कि सैट पर क्या करना चाहिए, क्या नहीं. यह कि फिल्म का सैट कोई खेल का मैदान नहीं होता. यह कि पेशेवर रवैया क्या होता है और उसे किस तरह बरतना चाहिए. यह कि आवाज़ के उतार-चढ़ाव के मायने क्या हुआ करते हैं. यह कि डायलॉग बोलते वक़्त या सामान्य बातचीत में भी, शब्दों के चयन की कितनी अहमियत होती है. यह कि परफेक्ट एटीट्यूड क्या होता है. कैसे गढ़ा जाता है. यह कि परफेक्ट पर्सनैलिटी कैसी होती है. ऐसी तमाम चीजें, जो मैंने किसी एक शख़्स में पहले कभी नहीं देखीं थीं’.

‘मैंने कभी, किसी वक़्त दर्द को उनके चेहरे पर झलकते हुए नहीं देखा. उन्हें तक़लीफ़ जाहिर करते नहीं देखा. घोड़े से गिरो, पहाड़ से गिरो. बरफ मे नंगे पांव जाओ. आप कुछ भी करो. कभी भी नहीं…, पलक नहीं झपकी. फिल्म ‘गंगा की सौगंध’ (साल 1978) का वाक़ि’आ याद आता है. उसमें वाक़’ई में वे ज़ख़्मी हो गए. लेकिन नहीं…,चेहरे पर शिकन नहीं. लगता है मानो, जितनी उन्हें चोट लगती है वे उतना ही उसे अपने भीतर जज़्ब कर ले जाते हैं. और उनकी मुस्कान चौड़ी हो जाती है. यह भी एक ऐसी बड़ी चीज थी, जो मैंने उनसे सीखी. मैं इससे पहले उनकी तरह के किसी इंसान से कभी नहीं मिली थी. मैं सोचती थी हमेशा, इतने सारे क्वालिटी जो स्पेशल हैं, जो अल्ला-मियां ने बनाए, वे कैसे किसी एक के ऊपर ही बिठा दिए उन्होंने. किसी एक इंसान में इतनी सारी गुड-क्वालिटीज़ कैसे हो सकती हैं?’ और फिर जनाब, रेखा जी से सवाल वही, हमेशा पूछा जाने वाला. अमिताभ साहब से उनकी मोहब्बत का.

इस सवाल पर जनाब, रेखा जी के जो पुराने ज़वाब हुआ करते हैं न, वे कोई परिपक्वता की झलक नहीं देते. लेकिन इस बार उनका ज़वाब, ‘मुझे आज तक भी कोई एक पुरुष, महिला, बच्चा नहीं मिला जो पूरी तरह, जोश में भरकर, पागलों की तरह, बेतहाशा और ख़ास तौर पर टूटकर उनकी मोहब्बत में न पड़ा हो. तो मुझ पर किसी को कोई शक क्यों होना चाहिए?’ इस जवाब के बाद भी अलबत्ता, सवाल को कुछ घुमाया जाता है. शायद कुछ और हासिल करने की ग़रज़ से. तो उस पर रेखा जी का जवाब, ‘उनके साथ मेरा कभी कोई निजी रिश्ता नहीं रहा… आप जानती हैं… यही सच्चाई है’. इस लम्हे में सिमी गरेवाल, मानो हथियार डालने की हालत में आ जाती हैं. वे हथियार डालती नहीं अलबत्ता. कुछ और कुरेदती हैं. मगर हर बार रेखा जी किसी आम चाहने वाले की तरह अमिताभ साहब के इश्क़ की ग़िरफ़्त में होने की बात खुलकर मानती हैं. पर ‘निजी रिश्ते’ की बात पूरे ‘आत्म-विश्वास के साथ’ ख़ारिज़ कर जाती हैं.

अब यहां से इस दास्तान पर फिर ग़ौर कीजिए जनाब. इसमें झलक मिलेगी कि 10 फिल्मों में अमिताभ साहब के साथ काम कर चुकीं रेखा जी ने वाक़’ई उनसे बहुत-कुछ सीखा है. आवाज़ का उतार-चढ़ाव, शब्दों का चयन, संयम, आत्म-विश्वास के साथ विपरीत हालात-सवालात का सामना करना और उनके बीच से बिना किसी बहस-ओ-मुबाहसा को हवा दिए साफ़-सुथरे निकल जाना भी. मुस्कुराते हुए. इसी दास्तान में अमिताभ साहब को ‘बेहद नज़दीक से जानने वाली इस शख़्सियत’ की जानिब से उनकी वे ख़ासियतें भी दिखेंगी, जो उन्होंने सितारा, सुपर-सितारा, महा-सितारा जैसे दायरों से बहुत आगे ले जाती हैं. साल-दर-साल उन्हें किसी अलहदा सांचे में ढालते हुए, गढ़ते हुए ‘सदी के महानायक’ के ख़िताब तक ले जाती हैं. लेकिन ठहरती नहीं. गाेया, अब भी बहुत कुछ बाकी हो.

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