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किसान नेताओं की महापंचायत : किसानों को नहीं बनाया जाना चाहिए राजनीतिक मोहरा

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किसान संगठनों ने उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भीड़ एकत्र कर अपनी महापंचायत तो कर ली, लेकिन इसमें संदेह है कि इसके जरिये वे कृषि कानूनों को रद किए जाने का औचित्य और आधार तैयार कर सकेंगे, क्योंकि यदि इस तरह से संसद की ओर से बनाए गए कानून वापस होने लगे, तो फिर देश में किसी भी कानून की खैर नहीं।

विपक्षी दल भी किसान संगठनों की मांग को दे रहे हवा

विडंबना यह है कि विपक्षी दल भी कृषि कानून वापस लेने की किसान संगठनों की मांग को हवा दे रहे हैं। इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ हैं। वे सरकार के खिलाफ अपनी राजनीतिक लड़ाई किसान संगठनों के कंधों का सहारा लेकर लड़ रहे हैं। हालांकि, सरकार ने बार-बार यह कहा है कि वह कृषि कानूनों की कथित विसंगतियों और खामियों को दूर करने के लिए तैयार है, लेकिन किसान संगठन यह बताने के लिए आगे नहीं आ रहे कि उन्हें इन कानूनों के किन प्रविधानों पर आपत्ति है। वे कृषि कानूनों को सिरे से खारिज करने की जिद पकड़े हुए हैं। ऐसा करके वे एक तरह से अमीर किसानों और आढ़तियों की ही पैरवी कर रहे हैं।

किसान हितों के नाम पर आढ़तियों की पैरवी

दरअसल, किसान हितों के नाम पर आढ़तियों की पैरवी करने वाले किसानों के हितैषी नहीं कहे जा सकते। वस्तुत: वे हैं भी नहीं और इसीलिए छोटे किसानों को संबल देने वाले कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताया जा रहा है। कृषि कानूनों का विरोध वास्तव में छोटे किसानों के हितों पर कुठाराघात है।

उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के विधानसभा चुनावों में दिखेंगे संकेत!

मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के आगामी विधानसभा चुनावों में अपना असर दिखाने के जो स्पष्ट संकेत किसान नेताओं ने दिए उससे यही प्रकट होता है कि उनका असल उद्देश्य किसानों की आड़ में अपनी राजनीति चमकाना है। ज्ञात हो कि इसके पहले पंजाब के किसान संगठन चुनावी राजनीति में उतरने के इरादे जाहिर कर चुके हैं। जो किसान नेता राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं वे इसके लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन इसके लिए किसानों को मोहरा नहीं बनाया जाना चाहिए।

किसानों को मोहरा बनाया जा रहा

दुर्भाग्य से किसान हितों की रक्षा के नाम पर किसानों को मोहरा बनाया जा रहा है। खुद को किसानों का नेता बताने वाले कई लोग ऐसे हैं जो पहले भी राजनीति में सक्रिय रह चुके हैं। इस दौरान वे नाकाम रहे। अब उन्हें लगता है कि किसानों का नाम लेकर राजनीति में सफलता हासिल की जा सकती है। कहना कठिन है कि वे सफल होंगे या नहीं? नि:संदेह किसान संगठनों ने मुजफ्फरनगर में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया, लेकिन इसके साथ ही उन्होंने धरनास्थलों पर डटे रहने पर भी जोर दिया। इससे साफ है कि उन्हें उन लाखों लोगों की तकलीफों से कोई मतलब नहीं जो सड़कों पर दिए जा रहे उनके धरनों से आजिज आ चुके हैं।

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