नई दिल्ली, जेएनएन। लोकतंत्र..एक ऐसा शब्द है जो बरबस ही अपने प्रति सम्मान और गरिमा का भाव पैदा करवा लेता है। तभी तो दुनिया का बंटवारा दो हिस्सों में किया जाता है, एक लोकतांत्रिक देश और दूसरे गैरलोकतांत्रिक देश। लोकतंत्र यानी जनता का, जनता द्वारा और जनता के लिए। इसकी पवित्रता असंदिग्ध है। लोकतंत्र में जनता अपने कल्याण के लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है जो नीतियों और योजनाओं के द्वारा लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठाते हैं। संसद इस लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर होता है जहां, इसकी प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। दुनिया भर की संसदों के कामकाज और सदस्यों के चयन के मानदंडों के आधार पर उनका वर्गीकरण करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन लोकतंत्र के भी कई प्रकार बताती है। भारत को वह पूर्ण लोकतंत्र के पूरे अंक नहीं देती है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को सबसे बेहतर बनाने की कोशिशें जारी हैं। चुनाव सुधार इसी का हिस्सा हैं। हाल ही में खत्म हुए संसद के शीत सत्र में चुनाव सुधारों को लेकर एक बिल दोनों सदनों से पारित कराया गया। इसके कानून बनने के बाद मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड आपस में जुड़ जाएंगे जिससे फर्जी या दोहरे मतदाताओं की पहचान हो सकेगी। यह बड़ा कदम है, लेकिन चुनाव सुधारों को और रफ्तार के साथ धार देने की जरूरत है। इसी क्रम में एक देश एक चुनाव के साथ एक ही मतदाता सूची की मांग दशकों से जारी है। अभी पंचायत और निकायों के चुनावों के लिए अलग मतदाता सूची होती है जबकि लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए दूसरी सूची। इसे भी एक किए जाने की जरूरत है। किसी लोकतंत्र में जितनी सहजता और पारदर्शिता से जनता को अपना प्रतिनिधि चुनने की आजादी होती है, वह उतना ही बेहतर लोकतंत्र कहलाता है। ये सारे सुधार आनलाइन वोटिंग का मार्ग भी प्रशस्त कर सकते हैं। ऐसे में हालिया हुए चुनाव सुधार और लंबित सुधारों की जरूरत की पड़ताल आज हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है।
एक देश एक चुनाव: देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने को भी बड़े चुनाव सुधार के रूप में देखा जाता रहा है। इसकी अर्से से मांग भी की जा रही है। 1967 तक देश में यही व्यवस्था भी थी लेकिन 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के असमय भंग होने और दिसंबर 1970 में लोकसभा चुनाव होने के चलते यह व्यवस्था गड़बड़ा गई। 1983 की अपनी सालाना रिपोर्ट में चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव फिर से कराए जाने की बात कही। 1999 में ला कमीशन की रिपोर्ट में भी इस मसले को प्रमुखता से उठाया गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इसे अपने घोषणा-पत्र का अंग बनाया। 2016 में प्रधानमंत्री मोदी ने इस मुद्दे को एक बार फिर देश के सामने रखा। जनवरी 2017 में नीति आयोग ने इस पर एक कार्य पत्र तैयार किया जिसके आधार पर ला कमीशन ने अप्रैल 2018 में कहा कि इस सुधार की जमीन तैयार करने के लिए कम से कम पांच संवैधानिक सिफारिशें जरूरी होंगी। हालांकि अभी यह सुधार भी फाइलों के बोझ तले कराह रहा है।