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उत्तर प्रदेश

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी: दो इस्लामिक स्कॉलर्स को पाठ्यक्रम से हटाया, क्या है पूरा मामला?

उत्तर प्रदेश का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक बार फिर से सुर्ख़ियों में है.

एएमयू के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग ने इस्लामिक स्कॉलर अबुल आला मौदूदी और सैय्यद क़ुतुब को सिलेबस से हटा दिया है.

इस्लामिक स्टडीज़ विभाग में इन्हें ऑप्शनल सब्जेक्ट्स के रूप में पिछले कई दशकों से पढ़ाया जाता रहा है.

समाज सेविका मधु किश्वर समेत कई दक्षिणपंथी स्कॉलर्स ने प्रधामंत्री नरेंद्र मोदी को एक ओपन पत्र लिख कर इस बात की मांग की थी कि इस्लामिक स्कॉलर मौलाना अबुल आला मौदूदी के लेखन और विचारों को इस्लामिक स्टडीज़ के पाठ्यक्रम से हटाया जाना चाहिए.

दक्षिणपंथी स्कॉलर्स ने पत्र में कहा था कि मौदूदी इस्लामिक कट्टरवाद से जुड़े हुए हैं और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में उन्हें और ऐसे अन्य स्कॉलर्स को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए.

इस पत्र के कुछ ही दिनों बाद एएमयू ने स्वतः फ़ैसला लेते हुए मौलाना अबुल आला मौदूदी और सैय्यद क़ुतुब को सिलेबस से हटा दिया.

इस फ़ैसले के बाद मधु किश्वर ने ट्वीट किया कि, “मौलाना मौदूदी को हटाना यह स्वीकार करता है कि वह कट्टर ख़ूनी जिहाद को ही मुसलमान का फ़र्ज़ बताते थे. पूरा सिलेबस रिव्यू होना चाहिए इन यूनिवर्सिटीज़ का.”

क्या है पूरा विवाद और पीएम को लिखी चिट्ठी में क्या है दावा?

सामाजिक कार्यकर्ता मधु किश्वर समेत देश के 20 से ज़्यादा दक्षिणपंथी शिक्षाविदों ने बीते 27 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखा था जिसमें स्कॉलर्स ने एएमयू, जामिया मिलिया इस्लामिया और हमदर्द यूनिवर्सिटी सहित राज्यों के अनुदान से चलने वाले विश्वविद्यालयों में मौलाना अबुल आला मौदूदी के लेखों की पढ़ाई कराए जाने पर एतराज़ जताया गया था.

मधु किश्वर के संस्थान मानुषी की वेबसाइट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखा गया यह पत्र मौजूद है. पत्र में लिखा गया था, हम आपके ध्यान में लाना चाहते हैं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और हमदर्द विश्वविद्यालय जैसे राज्य वित्त पोषित इस्लामी विश्वविद्यालयों के कुछ विभागों द्वारा बेशर्मी से जिहादी इस्लामिक पाठ्यक्रम का पालन किया जा रहा है.”

हिंदू समाज, संस्कृति और सभ्यता पर कभी न ख़त्म होने वाले हिंसक हमले ऐसी शिक्षाओं का प्रत्यक्ष परिणाम हैं. यह गहरी चिंता का विषय है कि प्रमुख इस्लामी विश्वविद्यालय ऐसी विचारधाराओं को वैधता और सम्मान का आवरण प्रदान कर रहे हैं, ख़ासकर जब से भारत के कुछ प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने खुले तौर पर 2047 तक भारत का इस्लामीकरण करने के अपने दृढ़ संकल्प की घोषणा की है. हम करदाताओं और संबंधित नागरिकों के रूप में ऐसी शिक्षाओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करने का अधिकार रखते हैं.”

इस चिट्ठी में मौलाना अबुल आला मौदूदी का बार-बार उदाहरण देते हुए और उनके लेखन का ‘जिहादी संगठनों’ द्वारा इस्तेमाल का आरोप लगाया गया है. चिट्ठी में पत्रकारों, रिसर्च स्कॉलर्स और लेखकों के लेखन के उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की गई है कि मौलाना अबुल आला मौदूदी इन सरकारी संस्थानों में पढ़ाए जाने लायक़ नहीं है.

मधु किश्वर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि “अलीगढ़ विश्वविद्यालय ने तो फटाफट स्वीकार कर लिया कि मौलाना मौदूदी और अन्य पाकिस्तानी और मिस्र के विचारक (आइडियोलॉग्स) पढ़ाने लायक़ नहीं हैं, इनको सिलेबस से बाहर किया जा रहा है! परंतु बाक़ी सिलेबस में भी जिहाद पढ़ाया जाता है, उसकी तहक़ीक़ात तो करनी पड़ेगी.”

क्या कहना है एएमयू प्रशासन का

एएमयू के मास्स कम्युनिकेशन विभाग के प्रोफ़ेसर और प्रवक्ता शाफ़े क़िदवई सिलेबस से हटाने की पुष्टि करते हुए कहते हैं, “एमए इस्लामिक स्टडीज़ में एक ऑप्शनल पेपर है जिसका नाम है इस्लामिक थिंकर्स जिसमें सैय्यद क़ुतुब और मौलाना अबुल आला मौदूदी जैसे कई सारे इस्लामिक थिंकर्स हैं. यह कोई कम्पलसरी पेपर नहीं है. यह एक ऑप्शनल पेपर है. इनके विचारों को लेकर एक विवाद हो रहा था तो हमने उससे जुड़े पाठ्यक्रम को हटा दिया. क्योंकि यह ऑप्शनल पेपर है तो इसे रोका जा सकता था.”

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी

क्या यह फ़ैसला प्रधानमंत्री को मधु किश्वर और अन्य अकादमिक लोगों द्वारा लिखी गई चिट्ठी की वजह से किया गया? यह पूछे जाने पर शाफ़े क़िदवई कहते हैं, “यह तो मुझे नहीं मालूम. लेकिन अख़बारों में और मीडिया में विवाद हो रहा था और लोगों ने आपत्ति जताई थी. उससे बचने के लिए हमने ऐसा किया. इन विचारकों के लेखन में पैन-इस्लमिज़म से ज़ुड़ी बातें हैं जिनके बहुत सारे इंटरप्रेटशंस हैं. लोगों ने उनके इस्लाम के इंटरप्रिटेशन (व्याख्या) पर आपत्ति जताई कि यह मौजूदा हक़ीक़त के हिसाब से रिलेवेंट(प्रासंगिक) नहीं है.”

लेकिन क्या इसके लिए तय प्रक्रिया अपननाई गई है?

पाठ्यक्रम में बदलाव की प्रक्रिया को समझाते हुए शाफ़े क़िदवई कहते हैं, हम प्रक्रिया फ़ॉलो कर रहे हैं. उसे अस्थायी रूप से हटा दिया है और हम लोग उसे पूरी तरह से हटाने की प्रक्रिया अपना रहे हैं. हटाने की प्रक्रिया में सबसे पहले बोर्ड ऑफ़ स्टडीज़ होती है. लेकिन क्योंकि यह ऑप्शनल पेपर है तो हम उसे रोक सकते हैं. कम्पलसरी पेपर को हम ऐसे नहीं रोक सकते हैं. बॉर्ड ऑफ़ स्टडीज़ की एक मीटिंग हो गई है. और इसके बाद अकादमिक काउंसिल में जाएगा और अंत में उसे हटा दिया जाएगा. इसको अस्थायी रूप से चेयरमैन ने रोक दिया है.”

क़ुतुब शहीद और मौलाना आला मदूदी कितने समय से कोर्स का हिस्सा थे? इस बारे में शाफ़े क़िदवई कहते हैं, “यह काफ़ी दिन से पढ़ाया जा रहा था. मुझे तारीख़ तो नहीं पता लेकिन कई सालों से इन्हें पढ़ाया जा रहा था.”

क्या कहना है अलीगढ़ विश्वविद्यालय के दूसरे प्रोफ़ेसरों का?

अलीगढ़ में स्थानीय मीडिया से बात करते हुए अलीगढ़ विश्वविद्यालय के इस्लामिक स्टडीज़ विभाग के पूर्व चेयरमैन और मौजूदा प्रोफ़ेसर ओबैदुल्लाह फ़हद कहते है, “मौलाना अबुल आला मौदूदी की लिखी हुई किताबों पर सबसे ज़्यादा ऑब्जेक्शन (विरोध) हो रहे हैं. उसकी वजह ये है कि वो 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े मुस्लिम स्कॉलर हैं. उनका असर पूरी मुस्लिम दुनिया, यूरोप और अमेरिका पर है. चूंकि वेस्टर्न कोलोनाईज़ेशन (उपनिवेशवाद) के ख़िलाफ़ एक सबसे मज़बूत आवाज़ बनकर वो उभरे. तो उनके ख़िलाफ़ सबसे ज़्यादा मवाद इस वक़्त वेस्टर्न लिटरेचर (पश्चिमी साहित्य) में पाया जाता है.”

वो आगे कहते हैं, “मैं पिछले 50 साल से मौदूदी को पढ़ रहा हूं. मैंने उनपर पीएचडी करवाई है. मुझे एक सिंगल लाइन कहीं ये नहीं मिली जिसमें उन्होंने किसी टेर्ररिज़्म (चरमपंथ) की, वायलेंस (हिंसा) की, अन-डेमोक्रेटिक अंडर ग्राउंड एक्टिविटी (अलोकतांत्रिक ख़ुफ़िया गतिविधि) की बात की हो. शुरू से लेकर आख़िर तक वो ये ही कहते रहे, कि हमें इस्लाम के लिए काम करना है. वो मेथड अडॉप्ट करना है जो हमारे रसूल ने अपनाया था. पीसफुल (शांतिपूर्ण), डेमोक्रेटिक कोंस्टीटूशनल मेथड(लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रक्रिया).

इस्लामिक स्टडीज़ के सिलेबस के बारे में प्रोफ़ेसर ओबैदुल्लाह फ़हद कहते हैं, “हमारे यहां किताबें नहीं पढ़ाई जाती हैं. हम थिंकर्स को पढ़ाते हैं. उसमें मौलाना अबुल आला मौदूदी, मोहम्मद इक़बाल, अशरफ़ अली थानवी, अमीना हसन इस्लामी, मुफ्ती मोहम्मद क़ासिम नानोत्वी, मौलाना अहमद रज़ा खां. ये सारे बड़े स्कॉलर्स जो हैं 20वीं सदी के, हम सबको पढ़ाते हैं. उसे क्रिटिकली इवैल्यूएट (आलोचनात्मक मूल्यांकन) करते हैं, आँख बंद करके नहीं पढ़ाते हैं.”

इस विवाद पर क्या है एएमयू के छात्रों की राय?

अलीगढ़ विश्वविद्यालय के एक छात्र फ़रीद मिर्ज़ा कहते हैं, “सिर्फ़ प्रधानमंत्री से शिकायत करने पर सिलेबस चेंज करना कहीं से समझ में नहीं आता है. क्योंकि उसका एक प्रोसेस होता है. एक सिस्टम होता है. बोर्ड मीटिंग बैठती है. उसके बाद डिसाइड होता है, कि ये चीज़ें निकाली जाएं या ना निकाली जाएं.”

वहीं इस्लामिक स्टडीज़ के एक दूसरे पूर्व छात्र आमिर मिंटो का कहना है, “अभी तक मेरी जानकारी में यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन की तरफ़ से कोई वज़ाहत (स्पष्टीकरण) नहीं आई है, कि इसके क्या कारण थे. लेकिन ये समझा जा रहा है कि जो ये लेटर लिखा गया प्रधानमंत्री जी को, तो शायद यह उसकी प्रतिक्रिया में किया गया है. यहां पर एक चीज़ ग़ौर करने वाली है कि कोई भी मिस्टर एक्स, वाई, ज़ेड, कोई भी राह चलता हुआ इंसान प्राइम मिनिस्टर को लेटर लिखेगा, तो उस यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन अपने यहां सिलेबस में माइनस और प्लस करने लगेगा. क्या इस तरह से युनिवर्सिटी चलेगी?”

आमिर मिंटो आगे कहते हैं कि “देखिए यह एक्ट ऑफ़ पार्लियामेंट से पास यूनिवर्सिटी है. सेंट्रल यूनिवर्सिटी है. ये कोई बनिए की दुकान नहीं है, जो किसी के लाइक डिस-लाइक (पसंद-नापसंद) या किसी के विल (इच्छा) से चलेगी. या किसी लेटर से चलेगी. ये एक्ट ऑफ़ पार्लियामेंट से चल रही है. और एक्ट ऑफ़ पार्लियामेंट से ही चलेगी. कम से कम जब तक तो चलेगी जब तक मुल्क में कांस्टिट्यूशन नाफ़िज़ (संविधान लागू) है.”

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कौन हैं मौदूदी और सैय्यद क़ुतुब

अबुल आला मौदूदी (1903-1979)

मौलाना मौदूदी

अबुल आला मौदूदी का जन्म साल 1903 में महाराष्ट के औरंगाबाद में हुआ था. सिर्फ़ 24 साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली किताब ‘अल-जिहाद फ़िल इस्लाम’ लिखी.

साल 1941 में उन्होंने पाकिस्तान के लाहौर में ‘जमात-ए-इस्लामी’ नामक संगठन की स्थापना की. यहां यह जानना बहुत अहम है कि वो भारत के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के ख़िलाफ़ थे लेकिन 1947 में भारत विभाजन के बाद वो पाकिस्तान चले गए.

पाकिस्तान में उन्होंने इस्लामी क़ानून लागू करने की वकालत की. पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें कई बार गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया.

साल 1972 में उन्होंने मुसलमानों के धार्मिक ग्रन्थ क़ुरान की कमेंट्री (तफ़हीम-उल-क़ुरान) मुकम्मल की जिस पर वो पिछले 30 साल से काम कर रहे थे.

1979 में इलाज के लिए वो अमेरिका गए और वहीं उनकी मौत हो गई. उन्हें लाहौर में दफ़न किया गया.

मौलाना मौदूदी ने अपने जीवन में 70 से ज़्यादा किताबें लिखीं और एक हज़ार से ज़्यादा भाषण दिए.

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सैय्यद क़ुतुब (1906-1966)

सैय्यद क़ुतुब का जन्म साल 1906 में उपरी मिस्र के अस्युत प्रांत में हुआ था. बाद में वो राजधानी क़ाहिरा में आ गए और पढ़ाई पूरी करने के बाद 1933 में शिक्षक बन गए.

वो पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के बड़े आलोचक बन गए. 1948 में वो उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए. वहां दो साल रहे और इस बीच 1949 में उन्होंने ‘इस्लाम में सामाजिक न्याय’ नामक किताब लिखी.

अमेरिका से लौटने के बाद उन्होंने एक किताब लिखी थी जिसका नाम था ‘अमेरिका जिसे मैंने देखा है.’

कहा जाता है कि अमेरिका में अपने निवास के दौरान ही उनको पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से नफ़रत होने लगी थी हालाकि यह भी सच है कि वो अपने कपड़ों, क्लासिकल संगीत और हॉलीवुड फ़िल्मों को पसंद करने के कारण बहुत हद तक पश्चिमी तौर-तरीक़ों के पैरोकार भी थे.

उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ नामक संस्था से जुड़ गए. बहुत जल्द ही वो इसके मुखपत्र के संपादक बन गए और संस्था के सर्वोच्च बॉडी के सदस्य बन गए. 1952 में गमाल अब्दुल नासिर ने जब मिस्र की सरकार का तख़्ता पलटा था तब सैय्यद क़ुतुब और मुस्लिम ब्रदरहुड ने नासिर का समर्थन किया था. नासिर ने क़ुतुब में उनकी पसंद का मंत्रालय देने की पेशकश की लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया.

लेकिन जल्द ही नासिर से उनके मतभेद सामने आ गए क्योंकि नासिर धर्मनिरपेक्षता के समर्थक थे जबकि मुस्लिम ब्रदरहुड मिस्र में इस्लामी हुकूमत लाना चाहता था.

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1954 में क़ुतब और ब्रदरहुड ने नासिर का तख़्ता पलटने की कोशिश की लेकिन वो असफल हुए और क़ुतब समेत मुस्लिम ब्रदरहुड के कई नेताओं को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया.

जेल में रहते हुए ही सैय्यद क़ुतुब ने दो किताबें लिखीं. एक उन्होंने क़ुरान की कमेंट्री लिखी और दूसरी किताब माइलस्टोन्स के नाम से लिखी.

इन्हीं दो किताबों से उनकी पूरी विचारधारा का पता चलता है. उन्हें 1964 में जेल से रिहा किया गया लेकिन कुछ ही महीनों बाद उन्हें 1965 में दोबारा गिरफ़्तार कर लिया गया. अदालत ने उन्हें दोषी पाते हुए मौत की सज़ा सुनाई और 29 अगस्त, 1966 को उन्हें फांसी दे दी गई.

बांग्लादेश में भी किताबों पर पाबंदी

साल 2010 में बांग्लादेश की सरकार ने आदेश दिया था कि देश की सभी मस्जिदों, मदरसों और पुस्तकालयों से मौलाना मौदूदी की लिखी किताबें हटा दी जाएं.

बांग्लादेश की सरकार का उस समय कहना था कि मौलाना मौदूदी की किताबें ”चरमपंथी और आतंकवादी” गतिविधियों को बढ़ावा देती हैं.

बांग्लादेश की सरकार समर्थक संस्था इस्लामिक फ़ाउंडेशन के महानिदेशक शमीम मोहम्मद ने बीबीसी से बात करते हुए कहा था, ”मौदूदी का लेखन इस्लाम की शांतिपूर्ण विचारधारा के विरुद्ध है. इसलिए यह मस्जिदों में उनकी लिखी किताबें रखना सही नहीं है.”

हालांकि उस समय जमात-ए-इस्लामी ने सरकार के इस क़दम को इस्लाम विरोधी क़रार दिया था.

ब्रिटेन की जेलों में भी उनकी किताबें

साल 2015 में यान एचेसन ने ब्रिटेन की नौ जेलों की निरीक्षण किया था. उन्होंने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि कम से कम पाँच ऐसी किताबें जेलों में मौजूद थीं जिनको ब्रिटेन के जेल प्रशासन ने चरमपंथ को बढ़ावा देने वाला क़रार दिया था.

यान एचेसन की कमेटी ने मार्च 2016 में अपनी रिपोर्ट क़ानून एंव न्याय मंत्रालय को सौंपी और पाया कि उन्होंने जिन नौ जेलों का निरीक्षण किया था उनमें से नौ में यह किताबें पाईं गईं थीं.

उनकी रिपोर्ट के बाद सरकार ने जेलों से उन किताबों को हटाने का आदेश दिया था.

जिन किताबों को ब्रिटेन के जेलों में पाया गया था और बाद में उनको वहां से हटाने का फ़ैसला किया गया था उनमें सैय्यद क़ुतुब की माइलस्टोन्स और मौलाना मौदूदी की टुवर्डस अंडरस्टैंडिंग इस्लाम भी शामिल थी.

कहा जाता है कि इन किताबों ने अरब दुनिया में जिहादियों को प्रेरणा दी है.

सऊदी अरब में भी साल 2015 में इन किताबों पर पाबंदी लगा दी गई थी.

मुस्लिम ब्रदरहुड के संस्थापक अल-बन्ना समेत मौदूदी और क़ुतुब की किताबों को आधुनिक राजनीतिक इस्लाम के विकास में केंद्रबिंदु माना जाता है.

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