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Swatantra Veer Savarkar Movie Review: ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ का करिश्मा और हुड्डा का पूरा दम दिखेगा इस मूवी में

Swatantra Veer Savarkar in Cinemas Today: रणदीप हुड्डा की फिल्म ‘स्वातंत्र्य वीर सावरकर’ थियेटर में रिलीज हो गई है. इस फिल्म में रणदीप हुड्डा के अलावा अंकिता लोखंडे लीड में हैं. थियेटर में देखने से पहले पढ़ें इस फिल्म का रिव्यू.

निर्देशक: रणदीप हुड्डा

स्टार कास्ट: रणदीप हुड्डा, अंकिता लोखंडे, अमित सिआल, चेतन स्वरूप, राजेश खेरा, रसेल जिऑफरी बैंक्स, ब्रजेश झा

कहां देख सकते हैं: थियेटर में

स्टार रेटिंग: 4

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Randeep Hooda Swatantra Veer Savarkar Movie Review: सावरकर के चाहने वाले और नफरत करने वाले, दोनों ही इस देश में जरूरत से ज्यादा हैं. ऐसे में रणदीप हुड्डा ने एक बड़ा रिस्क लिया है, अपनी सारी क्रिएटिविटी, अपने सारे इमोशंस, सारी मेहनत, सारा पैसा और सारा दम लगाकर ये मूवी बनाई है. और पर्दे पर ये दिखा भी है, चाहने वाले और नफरत करने वाले दोनों ही, व्हाट्स अप यूनिवर्सिटी और फेसबुक, एक्स (ट्विटर) की बहस से हटकर कुछ नए तथ्य जानेंगे, ये तय है. बावजूद इसके जो सावरकर के अध्येता हैं, उनको शिकायत हो सकती है कि वेब सीरीज के मसले को एक लगभग तीन घंटे की मूवी में डाल तो दिया है, लेकिन कई घटनाएं छूट गईं और कई ज्यादा समय मांगती थीं.

सावरकर की कहानी इस मूवी में पुणे के प्लेग से दिखाई जाती है कि कैसे उनके पिता की प्लेग से मृत्यु होती है और चापेकर बंधु प्लेग कमिश्नर की हत्या कर फांसी पर चढ़ जाते हैं, जिक्र 1857 की क्रांति के साथ साथ सशस्त्र क्रांति के जनक वासुदेव बलवंत फड़के का भी होता है और कैसे ये सब घटनाएं व व्यक्ति विनायक सावरकर के जीवन को क्रांतिकारी पथ पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं, ये सब दिखाया गया है. फिल्म का अंत गांधी हत्या एपिसोड के बाद जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली भारत दौरे पर आते हैं, तो सावरकर की ऐहतियातन गिरफ्तारी पर होता है.

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वो सारी घटनाएं इस मूवी में हैं, जो इतिहास में छुपाई गईं लेकिन सावरकर को महानायक बनाती हैं, जैसे दो-दो बार लंदन व रत्नागिरी में गांधी का खुद आकर उनसे मिलना, भगत सिंह का रत्नागिरी आकर उनकी किताब छपने की अनुमति मांगना, नेताजी बोस को रास बिहारी बोस से मिलने की सलाह देना, लंदन से भारत में वो पहला बम मैनुअल भेजना जिससे बने बम को खुदीराम बोस ने फेंका था, मदन लाल ढींगरा को कर्नल वायली की हत्या के लिए प्रेरित करना, अनंत कन्हेरे को नासिक कलेक्टर जैक्सन की हत्या के लिए प्रेरित करना, भारत का पहला ध्वज डिजाइन करना जिसमें हरा रंग ऊपर था, लंदन से 20 पिस्तौलों को किताबों में छुपाकर देश भर के क्रांतिकारियों को भिजवाना, फिर लगातार अंग्रेजों का इनसे डरना कि यही उनके लिए सबसे ज्यादा खतरनाक है.

रणदीप हुड्डा के जबरदस्त लुक

हुड्डा को ये सब तो दिखाना था ही, 1897 के दौर से 1960 तक के दशक में अलग-अलग लुक सावरकर के थे, उसके हिसाब से हुड्डा के लुक, बॉडी शेप आदि में बदलाव भी दिखाने थे. इसके अलावा इंडिया हाउस, सेलुलर जेल, शिप यात्रा, नेवी विद्रोह, उस जमाने के सेट्स और कई सारे विदेशी कलाकारों का इंतजाम भी, खासा मुश्किल रहा होगा. सावरकर के साथ दिक्कत एक और भी है, विरोधी खेमा रिलीज से पहले ही प्रोमो के कई तथ्यों पर सवाल उठा चुका है, सो हुड्डा को रिसर्च टीम पर इसका भी दवाब होगा, दूसरे हुड्डा ने साफ तौर पर कांग्रेस से इस मूवी में पंगा ले लिया है, सो मानसिक रूप से वो इसके लिए भी तैयार ही होंगे.

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दिखाई गईं खास चीजें

सावरकर के चाहने वाले भले ही उनकी दया याचिकाओं पर मूवी में दिए तर्कों से पूरी तरह सहमत न हो, लेकिन इस मुद्दे पर विक्रम संपत की किताब से तथ्यों का इस्तेमाल होता तो ज्यादा दमदारी दिखती, जो दया याचिकाओं का एक सरकारी फॉर्मेट होने के दावे करती है. लेकिन हुड्डा ने वो वजहें जरूर उजागर की ही हैं, जिनके चलते सावरकर की मुस्लिम विरोधी छवि बनी, मूवी में एक खास पहलू अलग से आम लोगों को सावरकर के बारे में पता चलेगा वो ये कि सावरकर ने दलितों के लिए जो मंदिर प्रवेश के आंदोलन चलाए थे, वो कई मायनों में गांधी जी और बाबा साहेब से कम नहीं थे, लेकिन उनकी चर्चा नहीं होती.

हुड्डा ने सावरकर से जुड़े हर विवाद को भी समेटने की भी कोशिश की है, चाहे गांधीजी से मन का न मिलना हो, मर्सी पेटीशंस हों, दूसरे विश्व युद्ध में भर्ती अभियान हिंदुओं के लिए चलाना हो, गांधीजी हत्या विवाद हो या भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध हो आदि. एक और बड़ा हिस्सा इस मूवी में दर्शकों को दिखने वाला है, वो है इमोशनल पारिवारिक हिस्सा. पिता की प्लेग से दर्दनाक मृत्यु से लेकर, पत्नी से सालों की दूरी, बेटी की मौत, भाई की लिंचिंग हो, काला पानी जेल में दोनों भाइयों पर होने वाले अत्याचार हों, आंखों में आंसू ला सकते हैं.

हालांकि ज्यादा से ज्यादा समेटने की कोशिश में मूवी कहीं कहीं डॉक्यूमेंट्री लगने लगती है, दो घंटे 56 मिनट की मूवी वैसे भी काफी बड़ी होती है, उस पर अगर आम दर्शक घटनाओं या पात्रों से वाकिफ ना हो तो दिक्कत हो सकती है.

लेकिन अगर गम्भीरता से आप सावरकर का संघर्ष देखने गए हैं या इच्छा है तो ये मूवी देखकर आप निराश नहीं होंगे, बल्कि आप सावरकर के साथ-साथ हुड्डा की ऑनस्क्रीन व ऑफस्क्रीन मेहनत देखकर उनके भी फैन हो जायेंगे. मेहनत आपको अंकिता लोखंडे और अमित सिआल के किरदारों में भी दिखेगी.

फिल्म में रिलीफ दिलाते हैं गाने

गाने फिल्म में रिलीफ की तरह और इमोशंस से दर्शकों को भरने के लिए आते हैं, चार गाने हैं, जिनमें से दो का म्यूजिक अनु मलिक ने दिया है. अनु का धरती का अभिमान.. गाना दिव्य कुमार की आवाज में अच्छा बन पड़ा है, राज बर्मन की आवाज में दरिया ओ दरिया भी कर्णप्रिय है.

कुल मिलाकर क्राफ्ट, एक्टिंग और रिसर्च के तौर पर फिल्म इस लिहाज से ज्यादा तारीफ के योग्य है, क्योंकि इसे रणदीप हुड्डा ने बनाया है, ऐसे में सावरकर को प्यार करने वाले तो इस फिल्म की नैया पार करवाएंगे ही, नफरत करने वाले भी फिल्म के तथ्यों से हैरान रह सकते हैं. हालांकि जिस तरह से फिल्म को गांधी बनाम सावरकर का रंग देकर चर्चा में लाने की कोशिश हुई है, फिल्म उससे कहीं आगे की चीज है. 

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