Haryana Sports News: पान का खोखा लगाने वाली पिता की बेटी ने एशिया कप टूर्नामेंट में भारतीय जूनियर महिला हॉकी टीम में बेहतरीन प्रदर्शन से कमाल कर दिखाया है. सोनीपत के ब्रह्म नगर निवासी मंजू चौरसिया ने टीम में डिफेंडर की भूमिका में मंजू चौरसिया ने शानदार खेल दिखाते हुए टीम को मजबूती दी.
Haryana Sports News: पान का खोखा लगाने वाली पिता की बेटी ने एशिया कप टूर्नामेंट (Asia Cup Tournament) में भारतीय जूनियर महिला हॉकी टीम में बेहतरीन प्रदर्शन से कमाल कर दिखाया है. सोनीपत के ब्रह्म नगर निवासी मंजू चौरसिया ने अपने पिता का सीना चौड़ा कर दिखाया है. पिता ने सपने में भी नहीं सोचा था कि बेटी इतना बड़ा मुकाम हासिल करेगी, टीम में डिफेंडर की भूमिका में मंजू चौरसिया ने शानदार खेल दिखाते हुए टीम को मजबूती दी.
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एशिया कप में खिताबी जीत के साथ ही लाडली के परिजन बेहद खुश हैं. बधाई देने वालों का भी तांता लगा हुआ है. मिठाई बांटी जा रही है. आठ साल की लड़की को भाई ने चक दे इंडिया फिल्म दिखाई तो मंजू चौरसिया ने भी अपने लक्ष्य को निर्धारित कर लिया. अपने लक्ष्य को पूरा करने की जिद्द परिवार के सदस्यों को सुबह मैदान पर ले जाने को लेकर रोकर उठाती थी, विषय हालातों अपनी कामयाबी की ध्वजा लहराने का जज्बा मंजू का कभी कम नहीं होने दिया.
इसी कारण टीम की जीत पर परिजनों का कहना है कि लाडली ने गर्व से सीना चौड़ा कर दिया. बेटी के खेलने के शौक और हॉकी के प्रति जुनून ने उसे आज अलग पहचान दिलाई है. सोनीपत की ब्रह्म कॉलोनी निवासी मंजू चौरसिया के पिता वकील भगत कहते हैं कि वह मूलरूप से बिहार के रहने वाले हैं. वह साल 1984 में सोनीपत आकर रहने लगे. वह पान का खोखा चलाकर अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं. परिवार की आर्थिक स्थित ज्यादा अच्छी नहीं है.
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उन्होंने कहा कि बेटी मंजू को बचपन से ही खेलने का बेहद शौक रहा है. साल 2006 में जब वह पांचवीं कक्षा में थी तब पहली बार हॉकी स्टीक थामी थी. उसके बाद उसने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. हॉकी के प्रति उसका जुनून ऐसा था कि खाना तक छोड़ देती थी. यहीं नहीं बीमारी की हालत में भी मना करने के बावजूद हॉकी का अभ्यास करने के लिए मैदान पर जाती थी. उसके इसी जुनून ने आज उसे नई पहचान दिलाई है.
माता-पिता से ज्यादा कोच ने दिया साथ
वकील भगत बताते हैं कि आर्थिक स्थिति कमजोर होने के चलते उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया, लेकिन लाडली की इस उपलब्धि में सबसे बड़ा योगदान उनकी कोच प्रीतम सिवाच का है. प्रीतम सिवाच ने माता-पिता से ज्यादा साथ दिया है. वह हर परिस्थिति में उसके साथ खड़ी रही और उसे यहां तक पहुंचाया. लाडो को आज जो मुकाम मिला है वह कोच प्रीतम सिवाच के आशीर्वाद, उसके सिखाए गुरु और योगदान का परिणाम है.
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विपरीत हालात होने के बावजूद भी मंजू ने कभी हार नहीं मानी और एक के बाद एक प्रतियोगिता में खेलती हुई यह सभी मेडल अपने नाम किए हैं और आज पूरा परिवार बेटी के मेडलों को हाथ में उठाकर गरीबी से अच्छे दिन लौटाने आने की खुशी व्यतीत कर रहा है. कुछ ही दिनों पहले रेलवे में मंजू की नौकरी लगी है और वहीं पिता पान के खोखे पर बैठकर अपनी बेटी के रचे हुए इतिहास की गाथा लोगों को सुना रहा है और हर कोई उन्हें भाग्यशाली पिता होने के लिए बधाई दे रहा है.