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बिज़नेस

कभी खुद नहीं लिया लोन, लेकिन कर्ज बांटकर बनाया 16 लाख करोड़ का कारोबार, कभी 1% से ऊपर नहीं रखी हिस्सेदारी

दीपक पारेख ने 30 जून को रिटायरमेंट की घोषणा की थी. वह 1978 में एचडीएफसी के साथ जुड़े थे. उन्हीं के प्रयास से एचडीएफसी ने बैंक के लाइसेंस के लिए भी आवेदन दिया था और देश का सबसे बड़ा निजी बैंक बनने का सफर तय किया. दीपक पारेख के रिटायरमेंट की घोषणा के अगले दिन एचडीएफसी और एचडीएफसी बैंक का विलय हो गया.

नई दिल्ली. एचडीएफसी के चेयरमैन दीपक पारेख ने 30 जून को रिटायरमेंट की घोषणा की थी. उनके रिटायरमेंट की खबर एचडीएफसी और एचडीएफसी बैंक के विलय के ठीक पहले आई, जो 1 जुलाई को पूरा हुआ. दीपक पारेख वह शख्स हैं जिन्होंने एचडीएफसी को शून्य से शिखर तक पहुंचाया है. एचडीएफसी की नींव उनके चाचा हंसमुख ठाकोरदास ने रखी थी. उन्होंने ही पारेख को लंदन से बुलाकर अपने बिजनेस से जुड़ने के लिए कहा था. उस समय एचडीएफसी की बस शुरुआत भर थी. कौन जानता था कि हंसमुख ठाकोरदास का ये फैसला ऐतिहासिक साबित होगा.

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दीपक पारेख ने मुबंई के एक कॉलेज से ग्रेजुएशन किया और फिर चार्टेड अकाउंटेंसी पढ़ने लंदन चले गए. पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अर्न्स्ट एंड यंग के साथ जुड़े. इसके बाद वह न्यूयॉर्क में इन्वेस्टमेंट बैंकर बन गए. वह चेस मैनहैटन जैसे बड़े बैंक के साथ काम कर रहे थे तभी उनके चाचा ने कहा कि उन्होंने एक नई होम लोन देने वाली कंपनी शुरू की है जिसके कुछ वित्तीय संस्थानों की मदद प्राप्त है. पारेख को उस समय यूएस से सऊदी अरब भेजा जा रहा था क्योंकि तेल मिलने के कारण वहां की अर्थव्यवस्था अचानक रफ्तार पकड़ने लगी थी. हालांकि, पारेख वहां जाना नहीं चाहते थे तो उन्होंने अपने चाचा की बात मानना सही समझा.

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बदल कर रख दिया लोन का बाजार
पारेख के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने कभी खुद 1 रुपये का भी लोन नहीं लिया. वह पैसे खर्चने और कमाने को लेकर हमेशा बहुत सख्त रहे. उन्होंने कभी बहुत अधिक पैसा बनाने की भी नहीं सोची. यही कारण रहा कि 30 साल लंबे करियर और शीर्ष पद पर रहने के बावजूद आज तक पारेख के पास एचडीएफसी में 1 फीसदी से ज्यादा की कभी हिस्सेदारी नहीं रही. उनका मानना था कि बहुत ज्यादा पैसा बनाकर वह कुछ बहुत अलग जीवन नहीं जी लेंग. वह कहते थे कि उनकी जरूरतों के हिसाब से उनके पास पैसा है और वह बहुत है. इसलिए उन्हें कभी कर्ज लेने की भी जरूरत नहीं पड़ी. लेकिन इसी शख्स ने देशभर में लोगों के लिए लोन लेकर घर खरीदना एकदम सहज बना दिया. यह बड़ी उपलब्धि इसलिए है क्योंकि जब 1977 में एचडीएफसी की नींव रखी गई तब लोन लेना बुरा समझा जाता था. लोन केवल बड़े बिजनेसमैन या फिर मजबूर लोगों द्वारा लिया जाता था जिनके पास पैसे जुटाने का कोई और चारा नहीं था.

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आज जब करियर के शुरुआत में ही लोग लोन लेकर घर या कार खरीद लेते हैं तब ऐसी बात सुनना थोड़ा अजीब लग सकता है. लेकिन लोन को बुरे वक्त के संकेत से एक सामान्य चीज बनाने का काम दीपक पारेख ने ही किया. उन्होंने एचडीएफसी को डिप्टी जनरल मैनेजर के तौर पर जॉइन किया और आगे चलकर चेयरमैन बने. एचडीएफसी ने तब लोन का कारोबार शुरू किया जब भारत में इसका कोई भविष्य ही नजर नहीं आता था. पारेख के लिए यह एक चुनौती थी जिसका उन्होंने बखूबी मुकाबला किया और जीते. बाद में ब्याज दरें गिरी, फ्लोटिंग रेट का आगमन हुआ और अन्य बैंकों ने भी इस ओर कदम बढ़ाए तो यह सेक्टर एकदम से आकाश की ओर भागा और साथ में दौड़ा एचडीएफसी.

कितनी थी सैलरी
मनीकंट्रोल के मुताबिक, जब पारेख ने 1978 में कंपनी जॉइन की तब उन्हें 3500 रुपये बेसिक सैलरी, 500 रुपये महंगाई भत्ता, 15 फीसदी हाउस रेंट अलाउंस और 10 सिटी कॉम्पेन्सेंट्री अलाउंट मिलता था. इसके अलावा उन्हें कंपनी की ओर से मेडिकल बेनेफिट, लीव ट्रैवल फैसिलिटी, पीएफ और ग्रेच्युटी भी मिलती थी. उनकी अंतिम सैलरी 2,47,00,000 रुपये थी.

16 लाख करोड़ की कंपनी
आज जब एचडीएफसी बैंक और एचडीएफसी का विलय हो गया है तो नई कंपनी मार्केट वैल्यू 16 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गई है. यह देश की दूसरी सबसे ज्यादा मार्केट वैल्यू वाली कंपनी है. साथ ही अब यह दुनिया का चौथा सबसे बड़ा बैंक बन गया है.

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